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________________ प्राकृत व्याकरण व्याकरण का आगामी समस्त प्राकृत व्याकरणों पर बड़ा गंभीर प्रभाव पड़ा है और रचनाशैली व विषयानुक्रम में वहां इसी का अनुसरण किया गया है । चंड ने प्राकृत व्याकरणकारों के लिये मानो एक आदर्श उपस्थित कर दिया । वररुचि, हेमचन्द्र आदि व्याकरणकारों ने जो संस्कृतभाषा में प्राकृत व्याकरण लिखे, आदि में प्राकृत के सामान्य लक्षण दिये, और अन्त में शौरसेनी आदि विशेष प्राकृतों के एक-एक के विशेष लक्षण बतलाये, वह सब चंड का ही अनुकरण है । हेमचन्द्र ने तो चंड के ही अनुसार अपने व्याकरण को चार पादों में ही. विभक्त किया है, और चूलिका पैशाची को छोड़ शेष उन्हीं चार प्राकृतों का व्याख्यान किया है, जिनका चंड ने किया, और चंड के समान स्वयं सूत्रों की वृत्ति भी लिखी । १८३ प्राकृत - लक्षण के पश्चात् दीर्घकाल तक का कोई जैन प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता । समन्तभद्र कृत प्राकृत व्याकरण का उल्लेख मिलता है, किन्तु यह ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हो सका । समन्तभद्र की एक व्याकरणात्मक रचना का उल्लेख देवनंदि पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरण में भी पाया जाता है, जिससे उनके किसी संस्कृत व्याकरण का अस्तित्व सिद्ध होता है । आश्चर्य नहीं जो समन्तभद्र ने ऐसा कोई व्याकरण लिखा हो, जिसमें क्रमश: संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का अनुशासन किया गया हो, जैसा कि आगे चलकर हेमचन्द्र की कृति में पाया जाता है । हेमचन्द्र ( १२ वीं शती) ने शब्दानुशासन नामक व्याकरण लिखा, जिसके प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत, तथा आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण किया गया । यह व्याकरण उपलभ्य समस्त प्राकृत व्याकरणों में सबसे अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित स्वीकार किया गया हैं । इसके चार पाद हैं । प्रथम पाद के २७१ सूत्रों में संधि, व्यजंनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, बिसर्ग स्वर - व्यत्यय और व्यंजन- व्यत्यय; इनका क्रमसे निरुपण किया गया है । द्वितीय पाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के विपरिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्ण-विपर्यय, शब्दादेश तद्धित, निपात और अव्यय एवं तृतीय पाद के १८२ सूत्रों में कारक विभक्तियों तथा क्रिया रचना संबंधी नियम बतलाये गये हैं । चौथे पाद में ४४८ सूत्र हैं, जिनमें से प्रथम २५९ सूत्रों में धात्वादेश और फिर शेष में क्रमशः शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं । अन्त के २ सूत्रों में यह भी कह दिया है कि प्राकृतों में उक्त लक्षणों का व्यत्यय भी पाया जाता है; तथा जो बात यहां नहीं बतलाई गई, वह संस्कृतवत् सिद्ध समझनी चाहिये । सूत्रों के अतिरिक्त उसकी वृत्ति भी स्वयं हेमचन्द्र कूत ही है, और इसके द्वारा उन्होंने सूत्रमत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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