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जैन साहित्य
वर्णित प्राकृत के बीच का प्रतीत होता है। वह अधिकांश अश्वघोष व अल्पांश भास के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों से मिलता हुआ पाया जाता है, क्योंकि इसमें मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों की बहुलता से रक्षा की गई है, और उनमें से प्रथम वर्गों में केवल क, व तृतीय वर्गों में ग के लोप का एक सूत्र में विधान किया गया है, और इस प्रकार च ट त प वर्णों की, शब्द के मध्य में भी, रक्षा की प्रवत्ति सूचित की गई है। इस प्राधार पर प्राकृत लक्षण का रचना-काल ईसा की दूसरी-तीसरी शती अनुमान करना अनुचित नहीं।
प्राकृत-लक्षण ४ पादों में विभक्त है। आदि में प्राकृत शब्दों के तीन रूप सूचित किये गये हैं तद्भव, तत्सम और देशी; तथा संस्कतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया गया है। तत्पश्चात् इनमें क्वचिद् व्यत्यया की चौथे सूत्र से सूचना करके, प्रथम पद के अन्तिम ३५ वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों का विधान किया गया है । इनमें यद् और इदम् के षष्ठी का रूप 'से' और अहम का कर्ता कारक 'हां' ध्यान देने योग्य है। जैसा कि हम जानते हैं, हां अपभ्रंश भाषा का विशेष रूप माना जाता है, किन्तु सूत्रकार के समय में उसका प्रयोग तो प्रचलित हो गया था, फिर भी वह अभी तक अपभ्रंश का विशेष लक्षण नहीं बना था। द्वितीय पाद के २६ सूत्रों में प्राकृत में स्वर-परिवर्तनों, शब्दादेशों व अव्ययों का वर्णन किया गया है। यहां गो का गावी आदेश व पूर्वकालिक रूपों के लिये केवल तु, ता, च्च, ट्ट, तु, तण, ओ और प्पि विभक्तियों का विधान किया गया है। दूण, ऊण, व य का यहां निर्देश नहीं है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के विपरिवर्तनों का विधान है। इनमें ध्यान देने योग्य नियम हैं-प्रथम वर्ण के स्थान में तृतीय का आदेश, जैसे एक एगं, पिशाची=विसाजी, कृतं-कदं, प्रतिषिद्धं = पदिसिद्धं । पाद के अन्तिम सूत्र में कह दिया गया है कि शिष्टप्रयोगाद् व्यवस्था अर्थात् शेष व्यवस्थाएं शिष्ट प्रयोगानुसार समझनी चाहिये। इस पाद के अन्त में सूत्रों की संख्या ६६ पूर्ण हो जाती है, और हार्नले साहब द्वारा निरीक्षित एक प्राचीन प्रति के आदि में ग्रन्थ में ६६ सूत्रों की ही सूचना मिलती है। सम्भव है मूल व्याकरण यहीं समाप्त हुआ हो। किन्तु अन्य प्रतियों में ४ सूत्रात्मक . चतुर्थ पाद भी मिलता है, जिसके एक-एक सूत्र में क्रमश: अपभ्रंश का लक्षण अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची में र् और ण् के स्थान पर ल और न् का आदेश, मागधिका में र् और स् के स्थान पर ल और श् आदेश, तथा शौरौनी में त् के स्थान पर विकल्प से द् का आदेश बतलाया गया है। प्राकृत-लक्षण का पूर्वोक्त स्वरूप निश्चयतः उसके विस्तार, रचना व भाषा-स्वरूप की दृष्टि से उसे उपलभ्य समस्त प्राकत व्याकरणों में प्राचीनतम सिद्ध करता है। इस
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