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________________ प्राकृत व्याकरण १८१ व्याकरण-प्राकृत-- महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में यह प्रश्न उठाया है कि जब लोकप्रचलित भाषा का ज्ञान लोक से स्वयं प्राप्त हो जाता है, तब उसके लिये शब्दानुशासन लिखने की क्या आवश्यकता ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बतलाया है कि बिना शब्दानुशासन के शब्द और अपशब्द में भेद स्पष्टतः समझ में नहीं आता, और इसके लिये शब्दानुशासन शास्त्र की आवश्यकता है। जैन साहित्य का निर्माण आदित: जन-भाषा में हुआ, और बहुत काल तक उसके अनुशासन के लिये स्वभावतः किसी व्याकरण शास्त्र की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। साहित्य में वचन-प्रयोगों के लिये इतना ही पर्याप्त था कि वैसे प्रयोग लोक में प्रचलित हो । धीरे-धीरे जब एक ओर बहुतसा साहित्य निर्माण हो गया, और दूसरी ओर नाना देशों में प्रचलित नाना प्रकार के प्रयोग सम्मुख आये, तथा कालानुक्रम से भी प्रयोगों में भेद पड़ता दिखाई देने लगा, तब उसके अनुशासन की आवश्यकता प्रतीत हुई। प्राकृत के उपलभ्य व्याकरणों में चंड (चन्द्र) कृत प्राकृत-लक्षरण सर्व-प्राचीन सिद्ध होता है । इसका सम्पादन रॉडल्फ हार्नले साहब ने करके विवलिओथिकाइंडिका में १८८० ई० में छपाया था, और उसे एक जैन लेखक की कति सिद्ध किया था। तथापि कुछ लोगों ने इसके सूत्रों को बाल्मीकि कृत माना है, जो स्पष्टतः असम्भव है। ग्रन्थ के आदि में जो वीर (महावीर) तीर्थंकर को प्रणाम किया गया है, व वृत्तिगत उदाहरणों में अर्हन्त (सू० ४६ व २४), जिनवर (सू० ४८), का उल्लेख आया है; उससे यह निःसंदेह जैन कृति सिद्ध होती है । ग्रन्थ के सूत्रकार और वृत्तिकार अलग-अलग हैं, इसके कोई प्रमाण नहीं। मंगलाचरण में जो वृद्धमत के आश्रय से प्राकृत व्याकरण के निर्माण की सूचना दी गई है, उससे यह अभिप्राय निकालना कि सूत्रकार और वृत्तिकार भिन्नभिन्न हैं, सर्वथा निराधार है। अधिक से अधिक उसका इतना ही अभिप्राय प्रतीत होता है कि प्रस्तुत रचना के समय भी सूत्रकार के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे, जिनमें से कर्ता ने अपने नियमों में प्राचीनतम प्रणाली की रक्षा करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि प्राकृत-लक्षण के रचना-काल संबंधी कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, तथापि ग्रन्थ के अन्तःपरीक्षण से उसका कुछ अनुमान किया जा सकता है । इसमें कुल सूत्रों की संख्या ६६ या १०३ है, और इस प्रकार यह उपलभ्य व्याकरणों में संक्षिप्ततम है। प्राकृत सामान्य का जो निरूपण यहां पाया जाता है, वह अशोक की धर्मलिपियों की भाषा और वररुचि द्वारा 'प्राकृत-प्रकाश' में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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