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जैन साहित्य
भद्र, समन्तभद्र, सिंहनंदि, सिद्धसेन, अभयकुमार, श्रेणिक आदि नामों का समावेश करके ग्रन्थ में जैन वातावरण निर्माण कर दिया गया है। उन्होंने श्रीदत्त का नाम, जो सूत्र में भी आया है, बारंबार इस प्रकार लिया है जिससे वे उनसे पूर्व के कोई महान् और सुविख्यात वैयाकरण प्रतीत होते हैं। विद्यानन्दि ने तत्वार्थ-श्लोक-वार्तिक में श्रीदत्त कत जल्पनिर्णय का उल्लेख किया है, जिसमें जल्प के दो प्रकार बतलाये गये थे । जिनसेन ने आदिपुराण में भी उन्हें 'तपःश्रीदीप्तमूर्ति व 'वादीभकण्ठीरव' कहकर नमस्कार किया है।
जैनेन्द्र व्याकरण का परिवर्धित रूप गुणनन्दि कृत शब्दार्णव में पाया जाता है, जिसमें ३७०० सूत्र अर्थात् मूल से ७०० अधिक सूत्र हैं । जैनेन्द्र सूत्रों में जो अनेक कमियां थीं, उनकी पूर्ति अभयनन्दि ने अपनी महावृत्ति के वार्तिकों द्वारा की। गुणनन्दि ने अपने संस्करण में उन सब के भी सूत्र बनाकर जैनेन्द्र व्याकरण को अपने काल तक के लिये अपने-आप में पूर्ण कर दिया है। यहां वह एकशेष प्रकरण भी जोड़ दिया गया है, जिसके अभाव के कारण चन्द्रिका टीका के कर्ता ने मूल ग्रंथ को 'अनेकशेष व्याकरण' कहा है। यद्यपि गुणनन्दि नाम के बहुत से मुनि हुए हैं; तथापि शब्दार्णव के कर्ता वे ही गुणनन्दि प्रतीत होते हैं, जो श्रवण बेल्गोल के अनेक शिलालेखों के अनुसार बलाक पिच्छ के शिष्य, तथा गृध्रपिच्छ के प्रशिष्य थे, एवं तर्क, व्याकरण और साहित्य के महान् विद्वान थे । वादि राजसूरि ने अपने पार्श्व-चरित में इनका स्मरण किया है। आदिपंप के गुरु देवेन्द्र इनके शिष्य थे। इनका समय कर्नाटक-कवि-चरित के अनुसार वि० सं० ६५७ ठीक प्रतीत होता है।
शब्दार्णव की अभी तक दो टीकायें प्राप्त हुई हैं--एक सोमदेव मुनि कृत .. शब्दार्णव-चन्द्रिका है जो शक सं० ११२७ में शिलाहार वंशीय राजा भोजदेव द्वि० के काल के खर्जुरिका नामक ग्राम के जिन मन्दिर में लिखी गई थी। लेखक के कथनानुसार उन्होंने इसे मेघचन्द्र के शिष्य नागचन्द्र (भुजंगसुधाकर) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यति के लिये रचा था।
दूसरी टीका शब्दार्णव-प्रक्रिया है, जो भ्रम-वश जैनेन्द्रप्रक्रिया के नाम से प्रकाशित हुई है । इसमें कर्ता ने अपना नाम प्रकट नहीं किया; किन्तु अपने को श्रुतकीतिदेव का शिष्य सूचित किया है । अनुमानत: ये श्रुतकीर्ति वे ही हैं, जिनकी श्रवणबेल्गोला के १०८ वें शिलालेख में बड़ी प्रशंसा की गई है, और जिनका समय वि० सं० ११८० माना गया है । अनुमानतः इनके शिष्य चारुकीर्ति पंडिताचार्य ही शब्दार्णव-प्रक्रिया के कर्ता हैं । उपयुक्त पंचवस्तुप्रक्रिया के को श्रुतकीर्ति भी इस कर्ता के गुरू हो सकते हैं। इसमें पं० नाथूराम जी प्रेमी
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