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प्रथमानुयोग-संस्कृत
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हासिक बातें भी पाई जाती हैं, विशेषत: लेखकों के समीपवर्ती काल की। राजशेखर की कृति में २४ व्यक्तियों के चरित्र वर्णित हैं, जिनमें राजा श्रीहर्ष और आचार्य हेमचन्द्र भी हैं, जिसप्रकार प्रभाचन्द्र, मेरुतुग और राजशेखर के प्रबन्धों में हमें ऐतिहासिक पुरुषों का चरित्र मिलता है, उसी प्रकार जिनप्रभसूरि कृत तीर्थकल्प या कल्पप्रदीप और राजप्रासाद (लगभग १३३० ई०) में जैन तीर्थों के निर्माण, उनके निर्माता व दानदाताओं आदि का वृत्तान्त मिलता है। रचना में संस्कृत व प्राकृत का मिश्रण है।
जैन लघुकथाओं का संग्रह बहुलता से कथा-कोषों में पाया जाता है, और उनमें पद्य, गद्य या मिश्ररूप से किसी पुरुष-स्त्री का चरित्र संक्षेप से वर्णित कर, उसके सांसारिक सुख-दुखों का कारण उसके स्वयं कृत पुण्य-पापों का परिणाम सिद्ध किया गया है । ऐसे कुछ कथाकोष ये हैं:
हरिषेण कृत कथाकोष (शक ८५३) संस्कृत पद्यों में रचा गया है, और उपलभ्य समस्त कथाकोषों में प्राचीन सिद्ध होता है । इसमें १५७ कथायें हैं । जिनमें चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, वररुचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी हैं। इस कथा के अनुसार भद्रबाहु उज्जैनी के समीप भाद्रपद (भदावर ?) में ही रहे थे, और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त, अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुन्नाट देश को गये थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द, जैसे मेदज्ज (मेतार्य) विज्जदाढ़ (विद्य द्दष्ट्र), प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं, जिससे अनुमान होता है कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत कृति के आधार से लिख रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोष को 'आराधनोद्धृत' कहा है जिससे अनुमानतः भगवती-आराधना का अभिप्राय हो । हरिषेण उसी पुन्नाट गच्छ के थे, जिसके आचार्य जिनसेन; और उन्होंने उसी वर्धमानपुर में अपनी ग्रंथ-रचना की थी, जहां हरिवंशपुराण की रचना जिनसेन ने शक ७०५ में की थी। इससे सिद्ध होता है कि वहां पुन्नाट संघ का आठवीं शताब्दी तक अच्छा केन्द्र रहा । यह कथाकोष बृहत्कथाकोष के नाम से प्रसिद्ध है। अनुमानतः उसके पीछे रचे जाने वाले कथाकोषों से पृथक करने के लिये यह विशेषण जोड़ा गया है।
अमितगति कृत धर्मपरीक्षा की शैली का मूल स्रोत यद्यपि हरिभद्र कृत प्राकृत धूर्ताख्यान है, तथापि यहां अनेक छोटे-बड़े कथानक सर्वथा स्वतंत्र व मौलिक हैं। ग्रंथ का मूल उद्देश्य अन्य धर्मों की पौराणिक कथाओं की असत्यता को उनसे अधिक कृत्रिम, असंभव व ऊटपटांग आख्यान कह कर सिद्ध करके, सच्चा धार्मिक श्रद्धान उत्पन्न करना है। इनमें धूर्तता और मूर्खता की कथाओं का बाहुल्य है।
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