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प्रथमानुयोग-सस्कृत गया प्रतीत होता है । इसकी रचना प्रायः अनुष्टुप् श्लोकों में हुई है । विषय और वर्णन प्रायः ज्यों का त्यों अध्याय-प्रतिअध्याय और बहुतायत से पद्य-प्रतिपद्य मिलता जाता है । हाँ, वर्णन-विस्तार कहीं कहीं पद्मचरित में अधिक · दिखाई देता है, जिससे उसका प्रमाण प्राकृत पउमचरियं से डयौढ़े से भी अधिक हो गया है। (हिन्दी अनुवाद सहित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, से प्रकाशित)
पद्मचरित् के पश्चात् संस्कृत में दूसरा पौराणिक रचना जिनसेन कृत हरिवंश पुराण है, जो शक सं० ७०५ अर्थात् ई० सन् ७८३ में समाप्त हुई थी, जबकि उत्तर भारत में इन्द्रायुध, दक्षिण में कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व में अवन्ति नप तथा पश्चिम में वत्सराज, एवं सौरमंडल में वीरवराह राजाओं का राज्य था। इसमें ६६ सर्ग हैं, जिनका कुल प्रमाण १२००० श्लोक है। यहां भी सामान्यतः अनुष्टुप छंद का प्रयोग हुआ है। किन्तु कुछ सगों के अन्त में द्रुतविलम्बित, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है । ग्रन्थ का मुख्य विषय हरिवंश में उत्पन्न हुए २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र वर्णन करना है किन्तु इसके प्रस्तावना रूप से ग्रन्थ में अन्य सभी शलाका पुरुषों का कीर्तन किया गया है, तथा त्रैलोक्य व जीवादि द्रव्यों का वर्णन भी पाया है। हरिवंश की एक शाखा यादवों की थी। इस वंश में शौरीपुर के एक राजा वसुदेव की रोहिणी और देवकी नामक दो पत्नियों से क्रमशः बलदेव और कृष्ण का जन्म हुमा । वसुदेव के भ्राता समुद्रविजय की शिवा नामक भार्या ने अरिष्टनेमि को जन्म दिया। युवक होने पर इनका विवाह-सम्बन्ध राजीमती नामक कन्या से निश्चित हुआ। विवाह के समय यादवों के मांस भोजन के लिये एकत्र किये गये पशुओं को देखकर करुणा से नेमिनाथ का हृदय विह्वल और संसार से विरक्त हो गया, और बिना विवाह कराये ही उन्होंने प्रवृज्या धारण कर ली। ये ही केवलज्ञान प्राप्त करके २२ वें तीर्थकर हुए । प्रसंगवश कौरवों और पाण्डवों का, तथा बलराम और कृष्ण के वंशजों का भी वृत्तान्त माया है । ग्रंथ में वसुदेव के भ्रमण का वृत्तान्त विस्तार से आया है जो वसुदेवहिंडी का स्मरण कराता है। किन्तु नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन इससे पूर्व अन्यत्र कहीं स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में दिखाई नहीं देता। उत्तराध्ययन सूत्र के 'रहनेमिज्ज' नामक २२ वें अध्ययन में अवश्य यह चरित्र वर्णित पाया जाता है किन्तु वह अति संक्षिप्त केवल ४६ गाथाओं में है । विमलसूरि कृत पउमचरियं के परिचय में ऊपर कहा जा चूका है कि सम्भवतः उसी ग्रंथकार की एक रचना 'हरिवंश चरित्र' भी थी जो अब अप्राप्य है। यदि वह रही हो तो प्रस्तुत रचना उस पर आधारित अनुमान की जा सकती है । ग्रंथ में जो चारुदत्त और वसन्तसेना का वृत्तान्त विस्तार से आया है, आश्चर्य नहीं, वही मृच्छ
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