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________________ १५४ जैन साहित्य वे संस्कृत हरिवंश के रचनाकाल, अर्थात् इ० सन् ७८३ के पूर्व ही हुए होंगे। अतः प्रस्तुत ग्रंथ का रचनाकाल ई० सन्७०० के लगभग सिद्ध होता है। स्वयम्भूदेव ने यह रचना ८२ या ८३वीं संधि पर्यंत ही की है; और सम्भवत: वहीं उन्होंने अपनी रचना को पूर्ण समझा था। किन्तु उनके सुपुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने शेष रूप से सात-आठऔर सर्ग रचकर उसे पदमचरित में वर्णित विषयों के अनुसार पूर्ण किया। समस्त ग्रंथ का कथाभाग संस्कृत पद्मचरित के ही समान है। हां, इस रचना में वर्णन विशेषरूप से काव्यात्मक पाये जाते हैं। स्थान स्थान पर छंदों का वैचित्र्य, अलंकारो की छटा, रसभाव-निरूपण आदि सस्कृत काव्यशैली की उत्कृष्ट रीति के अनुसार हुआ है । स्वयम्भू की दूसरी अपभ्रंश कृति 'रिट्ठणेमि चरिउ' या हरिवंशपुराण है । इसकी उत्थानिका में कवि ने भरत, पिंगल, भामह और दंडी के अतिरिक्त व्याकरण ज्ञान के लिये इन्द्र का, घन-घन अक्षराडम्बर के लिये बाण का, तथा पद्धडिया छंद के लिये चतुर्मुख का ऋण स्वीकार किया है। अन्त में कथा की परम्परा को महावीर के पश्चात् गौतम, सुधर्म, विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु से होती हुई संक्षेप में सूत्र रूप सुनकर, उन्होंने पद्धडिया बंध में मनोहरता से निबद्ध को, ऐसा कहा है। ग्रन्थ में तीन कांड है - यादव, कुरु और युद्ध; और उनमें कुल ११२ संधियाँ हैं । इसकी भी प्रथम ६६ संधिया स्वयंभू कृत हैं; और शेष उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभूकत । इन अन्तिम सन्धियों में से चार की पुष्पकाओं में मुनि यशःकीर्ति का भी नाम आता हैं। जिससे भी अनुमान होता है कि उन्होंने भी इस ग्रन्थ में कुछ संशोधन, परिवर्द्धन किया होगा । ग्रन्थ का कथाभाग प्रायः वही है जो जिनसेन कृत हरिवंश में पाया जाता है। यादव कांड में कृष्ण के जन्म, बाल-क्रीड़ा, विवाह आदि सम्बन्धी वर्णन बड़ी काव्यरीति से किया गया है । उसी प्रकार कुरु-कांड में कौरवों-पांडवों के जन्म, कुमारकाल, शिक्षण, परस्पर विरोध, द्यूतक्रीड़ा व वनवास का वर्णन तथा युद्धकाण्ड में कौरव-पाण्डवों के युद्ध का वर्णन रोचक व महाभारत के वर्णन से तुलनीय है। अपभ्रश में एक और हरिवंशपुराण धवल कवि कृत मिला है, जो १२२ सन्धियों में समाप्त हुआ है। कवि विप्र वर्ण के थे; और उनके पिता का नाम सूर, माता का केसुल्ल और गुरु का नाम अंबसेन था। ग्रंथ की उत्थानिका में उन्होंने अनेक आचार्यों और उनकी ग्रंथ-रचनाओं का उल्लेख किया है, जिनमें महासेन कृत सुलोचनाचरित, रविषेणकृत पद्मचरित, जिनसेन कृत हरिवंश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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