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प्रथमानुयोग-अपभ्रश
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जटिलमुनि कृत वरांगचरित, असगकृत वीरचरित, जिनरक्षित श्रावक द्वारा विख्यापित जयधवल एवं चतुर्मुख और द्रोण के नाम सुपरिचित, तथा कवि के काल-निर्णय में सहायक होते हैं। उनमें काल की दृष्टि से सबसे अन्तिम असग कवि हैं, जिन्होंने अपना वीरचरित शक संवत् ११० अर्थात् ई० सन् ६८८ में समाप्त किया था । अतएव यही कवि के काल की पूर्वाविधि है। उनकी उत्तरावधि निश्चित करने का कोई साधन प्राप्त नहीं है । सम्भवतः इस रचना का काल १० वी, ११ वीं शती होगा । विशेष उल्लेखनीय एक बात यह है कि अपने कवि-कीर्तन में कवि ने महान् श्वेताम्बर कवि गोविन्द और उनके सनत्कुमार चरित का उल्लेख किया है (सणकुमार में विरइउ मणहरु, क इगोविंदु पवरु सेयंबरु) । अपने विषय वर्णन के लिये कवि ने जिनसेन कृत हरिवंश पुराण का आश्रय लिया है। और इस ऋण का उन्होंने स्पष्ट उल्लेख कर दिया है (जह जिणसेणेण कयं, तह विरय मि कि पि उद्देसं) । सन्धियों की संख्या संस्कृत हरिवंश से दुगुनी से कुछ कम है, किन्तु निर्दिष्ट प्रमाण ठीक ड्योढ़ा है; क्योंकि संस्कृत हरिवंश पुराण का प्रमाण १२ हजार श्लोक और इसका १८००० आंका गया है। अधिक विस्तार वर्णन-वैचित्र्य के द्वारा हुआप्रतीत होता है । अपनश काव्य परम्परानुसार काव्यगुणों की भी इस ग्रन्थ में अपनी विशेषता है। छन्द-वैचित्र्य भी बहुतायत से पाया जाता है।
___अपभ्रश में और भी अनेक कवियों द्वारा हरिवंश पुराण की रचना की गई है । ऊपर स्वयम्भू कृत हरिवंश पुराण के परिचय में कहा जा चुका है कि उस ग्रन्थ की अन्तिम सन्धियों में यशःकीर्ति द्वारा भी कुछ संवर्द्धन किया गया है । यशःकीर्ति कृत एक स्वतन्त्र हरिवंशपुराण भी वि० सम्वत् १५०० या १५२० में रचित पाया जाता है । यह योगिनीपुर (दिल्ली) में अग्रवाल वंशी व गर्गगोत्री दिउढा साहू की प्रेरणा से लिखा गया था। यह ग्रन्थ १३ सन्धियों या सर्गों में समाप्त हुआ है । कथानक का आधार जिनसेन व स्वयम्भू तथा पुष्पदन्त की कृतियां प्रतीत होती हैं। एक और हरिवंश पुराण श्रुतिकीर्ति कृत मिला है, जो वि० स० १५५३ में पूर्ण हुआ है। इसमें ४४ सन्धियों द्वारा पूर्वोक्त कथा-वर्णन पाया जाता ।
जिस प्रकार प्राकृत में 'चऊपन्न-महापुरुषचरित' की तथा संस्कृत में वेसठ शलाका पुरुष चरितों की रचना हुई, उसी प्रकार अपभ्रंश में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा 'तिसदिमहापुरिस-गुरणालंकार' महापुराण की रचना पाई जाती है । इसकी रचना शक स० ८८१ सिद्धार्थ सवतत्सर से प्रारम्भ कर ८८७ क्रोधन सम्वत्सर तक ६ वर्ष में पूर्ण हुई थी। उस समय मान्यखेट में राष्ट्रकूट
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