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प्रथमानुयोग अपभ्रंश
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अयोगात्मकता की ओर उसकी प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है । कारक विभक्तियाँ तीन चार ही रह गई हैं; और क्रियाओं का प्रयोग बन्द सा हो गया है । उनके स्थान पर क्रियाओं से सिद्ध विशेषणों का उपयोग होने लगा है । व्याकरण की इन विशेषताओं के अतिरिक्त काव्य रचना की बिलकुल नई प्रणालियां और नये छन्दों का प्रयोग पाया जाता है । दोहा और पद्धतियाँ छंद अपभ्रंश काव्य की अपनी वस्तु है; और इन्हीं से हिन्दी के दोहो व चौपाइयों का आविष्कार हुआ है । इस भाषा का प्रचुर साहित्य जैन साहित्य की अपनी विशेषता है ।
अपभ्रंश पुराण
जिस प्रकार प्राकृत में प्रथमानुयोग काव्य का प्रारम्भ रामकथा से होता हैं; उसी प्रकार अपभ्रंश में भी । अब तक प्रकाश में आये हुए अपभ्रंश कथा साहित्य में स्वयम्भू कृत पउमचरिउ सर्वप्रथम है । इसमें विद्याधर योध्या, सुन्दर युद्ध और उत्तर ये पाँच कांड हैं, जिनके भीतर की समस्त संधियों (परिच्छेदों) की संख्या ९० है । ग्रंथ के आदि में कवि ने अपने पूर्ववर्ती भरत पिंगल, भामह, और दंडी एवं पांच महाकाव्य, इनका उल्लेख किया है । यह भी कहा है कि वह रामकथा रूपी नदी वर्द्धमान के मुख कुहर से निकली; और गणघर देवों ने उसे बहते हुए देखी । पश्चात् वह इन्द्रभूति आचार्य, फिर सुधर्म व कीर्ति - घर द्वारा प्रवाहित होती हुई, रविषेणाचार्य के प्रसाद से कविराज ( स्वयम्भू) को प्राप्त हुई । अपने वैयक्तिक परिचय में कवि ने अपनी माता पद्मिनी और पिता मारुतदेव तथा श्रमृताम्बा और प्राज्ञित्याम्बा, इन दो पत्नियों का उल्लेख किया हैं; और यह भी बतला दिया है कि वे शरीर से कृश और कुरूप थे; तथा उनकी नाक चपटी और दाँत विरल थे । उन्होंने अपने श्राश्रयदाता धनंजय का भी उल्लेख किया है । पुष्पदंत कृत महापुराण में जहाँ स्वयंभू का उल्लेख आया है, वहाँ पर प्राचीन प्रति में 'सयंमुह पद्धडिबंधकर्ता आपलीसंघीयह ऐसा टिप्पण पाया जाता है; जिससे अनुमान होता है कि वे यापिनीयसंघ के अनुयायी थे । कवि द्वारा उल्लिखित रविषेणाचार्य ने अपना पद्मचरित वीर नि० सं० १२०३ अर्थात् ई० सन् ६७६ में पूर्ण किया था; एवं स्वयंभूदेव का उल्लेख सन् ६५६ ई० में प्रारम्भ किये गये अपभ्रंश महापुराण में उसके कर्ता पुष्पदंत ने किया है । अतएव पउमचरिउ की रचना इन दोनों अवधियों के मध्यकाल की सिद्ध होती है । उनकी कालावधि को और भी सीमित करने का एक आधार यह भी है कि जैसा उन्होंने अपने पउमचरिउ में रविषेण का उल्लेख किया है, वैसा संस्कृत हरिवंशपुराण व उसके कर्ता जिनसेन का नहीं किया; अतएव सम्भवतः
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