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अपभ्रंश भाषा का विकास
भारत में आर्य भाषा का विकास मुख्य तीन स्तरों में विभाजित पाया जाता है । पहले स्तर की भाषा का स्वरूप वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों व रामायण, महाभारत आदि पुराणों व काव्यों में पाया जाता है, जिसे भाषा - विकास का प्राचीन युग माना जाता है । ईस्वी पूर्व छठवीं शती में महावीर और बुद्ध द्वारा उन भाषाओं को अपनाया गया जो उस समय पूर्व भारत की लोक भाषायें थीं; और जिनका स्वरूप हमें पालि त्रिपिटिक व अर्धमागधी जैनागम में दिखाई देता है । तत्पश्चातु की जो शौरसेनी व महाराष्ट्री रचनायें मिलती हैं उनकी भाषा को मध्ययुग के द्वितीय स्तर की माना गया है, जिसका विकास काल ईस्वी की दूसरी शती से पाँचवी शती तक पाया जाता है । तत्पश्चात् मध्ययुग का जो तीसरा स्तर पाया है, उसे अपभ्रंश का नाम दिया गया है । भाषा के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अपभ्रंश का उल्लेख पातंजल महाभाष्य ( ई० पू० दूसरी शती) में मिलता है; किन्तु वहाँ उसका अर्थ कोई विशेष भाषा न होकर शब्द का वह रूप है जो संस्कृत से अपभ्रष्ट, विकृत या विकसित हुआ है, जैसे गौ का गावी, गोणी, गोपोतलिका आदि देशी रूप । इसी मतानुसार दण्डी (छठी शती) ने अपने काव्यादर्श में कहा है शास्त्र में संस्कृत से अन्य सभी शब्द अपभ्रंश कहलाते हैं, किन्तु काव्य में आभीरों आदि की बोलियों को अपमाना गया है । इससे स्पष्ट है कि दण्डी के काल अर्थात् ईसा की छठी शती में अपभ्रंश काव्य-रचना प्रचलित थी । अपभ्रंश का विकास दसवीं शती तक चला और उसके साथ आर्य भाषा के विकास का द्वितीय स्तर समाप्त होकर तृतीय स्तर का प्रादुर्भाव हुआ; जिसकी प्रतिनिधि हिन्दी, मराठी, गुजराती बंगाली आदि आधुनिक भाषाएँ हैं । इसप्रकार अपभ्रंश एक ओर प्राचीन प्राकृतों और दूसरी ओर आधुनिक भाषाओं के बीच की कड़ी है । वस्तुतः अपभ्रंश से ही हिन्दी आदि भाषाओं का विकास हुआ है; और इस दृष्टि से इस भाषा के स्वरूप का बड़ा महत्व है । प्राकृत की अपेक्षा अपभ्रंश का मुख्य लक्षण यह है कि जहाँ अकारान्त शब्दों के कर्ता कारक की विभक्ति संस्कृत के विसर्ग व प्राकृत में ओ पाई जाती है, और कर्म कारक में श्रम दोनों भाषाओ में होता है, वहीं अपभ्रंश में वह 'उ' के रूप परिवर्तित हो गई; जैसे संस्कृत का 'रामः वनं गतः', प्राकृत में 'रामो वणं गओ' व अपभ्रंश में 'राम वणु गयक' के रूप में दिखाई देता है । इसीलिये भारत मुनि ने इस भाषा को 'उकार - बहुल कहा है । दूसरी विशेषता यह भी है कि अपभ्रंश में कुछ-कुछ परसगों का उपयोग होने लगा, जिसके प्रतीक 'तण' और 'केर' बहुतायत से दिखाई देते हैं । भाषा यद्यपि अभी भी प्रधानतया योगात्मक है, तथापि
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