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________________ प्रथमानुयोग-प्राकृत १४३ भेदों में भावना धर्म का आदर्श उदाहरणकुम्मापुत्त का दिया; तथा इन्द्रभूति के पूछने पर उसका वृत्तान्त सुनाया । पूर्व जन्म में वह दुर्लभ नाम का राजपुत्र था, जिसे एक यक्षिणी अपने पूर्व जन्म का पति पहचान कर पाताल लोक में ले गई। वह अपनी अल्पायु समझकर दुर्लभ धर्मध्यान में लग गया; और दूसरे जन्म में राजगृह का राजकुमार हुआ। शास्त्र-श्रवण द्वारा उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया, और वह संसार से विरक्त हो गया । तथापि माता-पिता को शोक न हो, इस विचार से प्रवृजित न होकर घर में ही रहा; और भावकेवली होकर मोक्ष गया। पूर्वभव-वर्णन में मनुष्य जीवन की चिन्तामणि के समान दुर्लभता के उदाहरण रूप एक आख्यान कहा गया है, जिसमें एक रत्नपरीक्षक पुरुष ने चिन्तामणि पाकर भी अपनो असावधानी से उसे समुद्र में खो दिया । रचना सरल और सुन्दर है । (प्रका० पूना, ५६३०)। इन प्रकाशित पद्यात्मक प्राकृत कथाओं के अतिरिक्त अन्य भी अनेक रचनाएं जैन शास्त्र भंडारों की सूचियों में उल्लिखित पाई जाती हैं, जिनमें जिनेश्वर सूरि कृत निर्वाण लीलावती का उल्लेख हमें अनेक ग्रंथों में मिलता है । विशेषतः धनेश्वर कृत 'सुरसुन्दरी चरिय' (वि० सं० १०६५) में उसे अति सुललित, प्रसन्न, श्लेषात्मक व विविधालंकार-शोभित कहा गया है । दुर्भाग्यतः इस ग्रंथ की प्रतियां दुर्लभ हो गई हैं, किन्तु उसका संस्कृत पद्यात्मक रूपान्तर ६००० श्लोकों में जिन रत्न (१३ वीं शती) कृत पाया जाता है। जबकि मूल ग्रन्थ के १८००० श्लोक प्रमाण होने का उल्लेख मिलता है। प्राकृत कथाएं-गद्य-पद्यात्मक जैन कथा-साहित्य अपनी उत्कृष्ट सीमा पर उन रचनाओं में दिखाई देता है । जो मुख्यतः गद्य में, व गद्य-पद्य मिश्रित रूप में लिखी गई हैं; अतएव जिन्हें हम चम्पू कह सकते हैं। इनमें प्राचीनतम ग्रन्थ है वसुदेव हिंडी, जो सौ लम्बकों में पूर्ण हुआ है। ये लम्बक दो भागों में विभक्त हैं । प्रथम खण्ड में २६ लम्बक हैं, और वह लगभग ११००० श्लोक-प्रमाण है । इसके कर्ता संघदासगणि वाचक हैं। दूसरे खण्ड में ७१ लम्बक १७००० श्लोक प्रमाण हैं और इसके कर्ता धर्मसेन गणि है । ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित नहीं है, तथापि जिनभद्रगणि ने अपनी विशेषणवती में इसका उल्लेख किया है। जिससे इसका रचना-काल छठवीं शती से पूर्व सिद्ध होता है । इस ग्रन्थ का अभी तक केवल प्रथम खण्ड ही प्रकाश में आया है। इसमें भी १६ और २० वें लम्बक अनुपलब्ध हैं तथा २८ वा अपूर्ण पाया जाता है। अंधकवृष्णि के पुत्रों में जेठे समुद्र विजय और सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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