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________________ १४२ जैन साहित्य उद्देश में धनपाल ने नेमीश्वर की स्तुति पहले संस्कृत गद्य में की है जो समास प्रचुर है; और फिर एक ऐसे अष्टक स्तोत्र द्वारा जिसके प्रत्येक पद्य का एक चरण संस्कृत में, और दूसरा चरण प्राकृत में रचा गया है । शिक्षात्मक उक्तियों व उपमाओं से तो समस्त रचना भरी हुई है। (प्रका० अमदाबाद, वि० सं० १९८६)। देवेन्द्रसूरि कृत कृष्ण चरित्र ११६३ गाथाओं में पूर्ण हुआ है । यथार्थतः यह रचना कर्ता के श्राद्धदिनकृत्य नामक ग्रन्थ के अन्तर्गत दृष्टान्त रूप से आई है। और वहीं से उद्धृत कर स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित की गई है । (रतनपुर, मालवा, १६३८) । इसमें वसुदेव के पूर्वभवों के वर्णन से प्रारम्भ कर क्रमश: वसुदेव के जन्म, भ्रमण, कृष्णजन्म, कंस-वध, द्वारिका-निर्माण, प्रद्युम्न-हरण, पांडव और द्रौपदी, जरासंध-युद्ध, नेमिनाथ-चरित्र, द्रौपदी-हरण, द्वारिका-दाह, बलदेव-दीक्षा, नेमिनिर्वाण और कृष्ण के भावी तीर्थकरत्व का वर्णन किया गया है । वसुदेव-भ्रमण के वृत्तान्त में प्रसंगवश चारुदत्त और वसन्तसेना का उल्लेख भी आया है । समस्त कथा का आधार वसुदेव हिडी एवं जिनसेन कृत हरिवंशपुराण है । रचना आद्यन्त कथा-प्रधान है। रत्नशेखर सूरि कृत श्रीपालचरित्र में १३४२ गाथाएं हैं। ग्रन्थ के अन्त में कहा गया है कि इसका संकलन वज्रसेन गणधर के पट्ट शिष्य, व प्रभु हेमतिलक सूरि के शिष्य रत्नशेखर सूरि ने किया; और उनके शिष्य हेमचन्द्र साधु ने वि० सं० १४२८ में इसको लिपिबद्ध किया। यह कथा सिद्ध चक्र के माहात्म्य को प्रकट करने के लिये लिखी गई है । उज्जैनी की राजकुमारी मदनसुन्दरी ने अपने पिता की दी हुई समस्या की पूर्ति में अपना यह भाव प्रकट किया कि प्रत्येक को अपने पुण्य-पाप के अनुसार सुख-दुःख प्राप्त होता है, इसमें दूसरे व्यक्तियों का कोई हाथ नहीं । पिता ने इसे पुत्री का अपने प्रति कृतघ्नता-भाव समझा; और क्रुद्ध होकर उसका विवाह श्रीपाल नामक कुष्टरोगी से कर दिया। मदनसुन्दरी ने अपनी पति-भक्ति तथा सिद्ध-चक्र पूजा के प्रभाव से उसे अच्छा कर लिया; और श्रीपाल ने नाना देशों का भ्रमण किया, तथा खूब धन और यश कमाया । ग्रन्थ के बीच-बीच में अनेक अपभ्रंश पद्य भी आये हैं, व नाना गद्य छंदों में स्तुतियां निबद्ध हैं। रचना आदि से अंत तक रोचक है । जिनमाणक्य कृत कुम्मापुत्त-चरियं छोटी सी कथा है जो १८५ गाथाओं में पूर्ण हुई है। कवि ने अपने गुरु का नाम हेमविमल प्रगट किया है। अतएव तपागच्छ पट्टावली के अनुसार वे १६ वीं सदी में हुए पाये जाते हैं। महावीर तीर्थकर ने अपने उपदेश में दान, तप, शील, और भावना, इन चार धर्म के T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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