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________________ प्रथमानुयोग-प्राकृत १४१ उज्जनी के राजा नरसिंह ने अपने ज्ञानी और विनोदी मित्र महीपाल को देश से इस कारण निर्वासित कर दिया कि वह अपना पूरा समय राजा की सेवा में न बिताकर, कुछ काल के लिये कलाओं की उपासना के हेतु अन्यत्र चला जाता था । निर्वासित महीपाल ने नाना द्वीपों व नगरों का परिभ्रमण किया, अपने कोशल, विज्ञान व चातुर्य से नाना राजाओं व सेठों को प्रसन्न कर बहुत सा धन प्राप्त किया व अनेक विवाह किये । लौटकर आने पर पुनः वह राजा का कृपापात्र बना; और अन्त में दोनों ने मुनि-उपदेश सुनकर वैराग्य धारण किया । सम्पूर्ण कथा गाथा छंद में वर्णित है; और महीपाल के कला व चातुर्य के उपाख्यानों से भरपूर है । कथा-प्रसंग कहीं बहुत नहीं टूटने पाया । भाषा सरल, धारावाही है । सरल अलंकारों व सूक्तियों का समुचित प्रयोग दिखाई देता है। (प्रका० अमदाबाद, वि० सं० १९६८) देवेन्द्रसूरि कृत 'सुदंसणाचरियं' का दूसरा नाम 'शकुनिका-विहार' भी है। कर्ता ने अपने विषय में कहा है कि वे चित्रापालक गच्छ के भुवनचन्द्र गुरु, उनके शिष्य देवभद्र मुनि, उनके शिष्य जगच्चन्द्र सूरि के शिष्य थे। उनके एक गुरुभ्राता विजयचन्द्र सूरि भी थे । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार उक्त देवभद्र आदि मुनि वस्तुपाल मंत्री के सम-सामयिक थे, एवं वि० सं० १३२३ में देवभद्र सूरि ने विद्यानंद को सूरि पद प्रदान किया था। अतएव इसी वर्ष के लगभग प्रस्तुत ग्रन्थ का रचनाकाल सिद्ध है। ग्रन्थ १६ उद्देशों में समाप्त हुआ है, जिनमें स्वयं ग्रन्थकार के अनुसार समस्त गाथाओं की संख्या ४००२ है; और धनपाल, सुदर्शन, विजयकुमार, शीलवती, अश्वावबोध, भ्राता, धात्रीसुत और धात्री, ये ८ अधिकार हैं । सुदर्शना सिंहलद्वीप में श्रीपुर नगर के राजा चन्द्रगुप्त और रानी चन्द्रलेखा की पुत्री थी। पढ़ लिखकर वह बड़ी विदुषी और कलावती निकली । एकबार उसने राजसभा में ज्ञाननिधि पुरोहित के मत का खंडन किया। धर्मभावना से प्रेरित हो वह भृगुकच्छ की यात्रा पर आई, और यहाँ उसने मुनिसुव्रत तीर्थकर का मंदिर तथा शकुनिका विहार नामक जिनालय निर्माण कराये; और अपना शेष जीवन धर्म ध्यान में व्यतीत किया । सुदर्शना का यह चरित्र हिरण्यपुर के सेठ धनपाल ने रैवतक गिरि की वन्दना से लौटकर अपनी पत्नी धनश्री को सुनाया था; जैसा कि उसने रैवतक गिरि में ऐक किन्नरी के मुख से सुना था। कथा में प्रसंगवश उक्त पुरुष-स्त्रियों तथा नाना अन्य घटनाओं के रोचक वृतान्त समाविष्ट हैं । दसवें उद्देश में ज्ञान व चरित्र के उदाहरण रूप मरुदेवी का तथा उनके पुत्र ऋषमप्रभु का चरित्र वर्णित है। उसी प्रकार नाना धार्मिक नियमों और उनके आदर्श दृष्टान्तों के वर्णन कथा के बीच गुथे हुए है । यत्र-तत्र कवि ने अपना रचना-चातुर्य भी प्रदर्शित किया है। १६ वें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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