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________________ १४० जैन साहित्य रण हैं । शेष ८ सर्गों में राजा कुमारपाल का चरित्र, और प्राकृत व्याकरण के उदाहरण हैं । यही भाग कुमारपाल-चरित के नामसे प्रसिद्ध है। इसके प्रथम ६ तथा सातवें सर्ग की ६२ वी गाथा तक प्राकृत व्याकरण के आदि से लेकर चौथे अध्याय के २५६ वें सूत्र तक प्राकृत सामान्य के उदाहरण आये हैं । फिर आठवें सर्ग की पांचवीं गाथा तक मागधी, ११ वीं तक पैशाची, १३ वीं तक चूलिका पैशाची, और तत्पश्चात् सर्ग के अन्तिम ८३ वें पद्य तक अपभ्रश के उदाहरण दिये गये हैं। कथा की दृष्टि से प्रथम सर्ग में अनहिलपुर व राजा कुमारपाल की प्रातः क्रिया का वर्णन है । द्वितीय सर्ग में राजा के व्यायाम, कुजरारोहण, जिनमंदिरगमन, पूजन व गृहागमन का वर्णन है । तीसरे सर्ग में उद्यानक्रीड़ा का व चौथे में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन है । पांचवें में वर्षा, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं का, छठवें में चन्द्रोदय का, सातवें में राजा के स्वप्न व परमार्थ-चिन्तन का, तथा अष्टम सर्ग में सरस्वती देवी द्वारा उपदेश दिये जाने का वर्णन है । इस प्रकार काव्य में कथाभाग प्रायः नहीं के बराबर है। किन्तु उक्त विषयों का वर्णन विशद और सुविस्तृत है। काव्य और व्याकरण की उक्त आवश्यकताओं की एक साथ पूर्ति बड़ा दुष्कर कार्य है। इस कठिन कार्य में कुछ कृत्रिमता और बोझलपन आ जाना भी अनिवार्य है; और इसे हेमचन्द्र ने अपनी इस कृति में बड़ी कुशलता से निबाहा है । इसकी उपमा संस्कृत साहित्य में एक भट्टीकाव्य में पाई जाती है, जिसमें कथा के साथ पाणिनीय व्याकरण के उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। किन्तु उसमें वह पूर्णता और क्रम-बद्धता नहीं है. जो हमें हेमचन्द्र की कृति में मिलती है । (प्रका० पूना, १६३६) प्राकृत में एक और कुमारपाल-परित पृथ्वीचन्द्र सूरि के शिष्य हरिशचन्द्र कृत भी पाया जाता है, जो ६५४ श्लोक प्रमाण है। वीरदेव गणि कृत 'महीवाल कहा' लगातार १८०० गाथाओं में पूर्ण हुई है । अन्त में कवि ने अपना इतना परिचय मात्र दिया है कि वे चन्द्र गच्छ के देवभद्र सूरि, उनके शिष्य सिद्धसेन सूरि, उनके शिष्य मुनिचन्द्र सूरि के शिष्य थे। उन्होंने अपने को पंडिततिलक उपाधि से विभूषित किया है। इस आचार्यपरम्परा का पूरा परिचय तो कहीं मिलता नहीं, तथापि एक प्रतिमा-लेख में देवभद्र सूरि के शिष्य सिंहसेन सूरि का उल्लेख पाता है, जिसमें सं० १२१३ का उल्लेख है (पट्टा० समु० पृ० २०५) । सम्भव है सिंहसेन और सिद्धसेन के पढ़ने में भ्रांति हुई हो और वे एक ही व्यक्ति के नाम हों। इस आधार पर प्रस्तुत रचना का काल ई० १२ वीं शती अनुमान किया जा सकता है । इसी प्रन्थ का संस्कृत रूपान्तर चरित्र सुन्दर कृत संस्कत 'महीपाल-चरित्र' में मिलता है, जिसका रचनाकाल १५ वीं शती का मध्य भाग अनुमान किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org-.
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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