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प्रथमानुयोग-प्राकृत
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वृत्तान्त ११ वें परिच्छेद से प्रारम्भ होता है। उससे पूर्व हस्तनापुर के सेठ धनदत्त का घटनापूर्ण वृत्तान्त, और अन्ततः श्रीदत्ता से विवाह; और उसी घटनाचक्र के बीच विद्याधार चित्रवेग और कनकमाला; तथा चित्रगति और प्रियंगुमंजरी के प्रेमाख्यान समाविष्ट हैं। प्रायः समस्त रचना गाथा छंद में है। किन्तु यत्र-तत्र अन्य नाना छंदों का प्रयोग भी हुआ है। कवि प्रतिभावान् है;
और समस्त रचना बड़े सरस और भावपूर्ण वर्णनों से भरी हुई है । प्राकृतिक दृश्यों, पुत्रजन्म व विवाहादि उत्सवों, प्रातः व संध्या, तथा वन एवं सरोवरों आदि के वर्णन बड़े कलापूर्ण और रोचक हैं। नृत्यादि के वर्णनों में हरिभद्र की समरादित्य कथा की छाप दिखाई देती है।
महेश्वर सूरि कृत 'णाणपंचमीकहा' की रचना का समय ई० सन् १०१५ से पुर्व अनुमान किया जाता है। इन रचना में स्वतंत्र १० कथाएँ समाविष्ट हैं, जिनके नाम हैं-(१) जयसेन, (२) नंद, (३) भद्रा, (४) वीर, (५) कमल, (६) गुणानुराग, (७) विमल, (८) धरण, (६) देवी, और (१०) भविष्यदत्त । प्रथम और अन्तिम कथाएं कोई पांच-पांच सौ गाथाओं में, और शेष कोई १२५ गाथाओं में समाप्त हुई हैं। इस प्रकार समस्त गाथाओं की संख्या लगभग २००० है । दसों कथाएँ ज्ञानपंचमी व्रत का माहात्म्य दिखलाने के लिये लिखी गई हैं । कथाएँ बड़ी सुन्दर, सरल और धारावाही रीति से वर्णित हैं । यथास्थान रसों और भावों एवं लोकोक्तियों का भी अच्छा समावेश किया गया है, जिनसे इस रचना को काव्य पद प्राप्त होता है।
हेमचन्द्र कृत 'कुमारपाल चरित' माठ सर्गों में समाप्त हुआ है । हेमचन्द्र का जन्म वि० सं० ११४५ में और स्वर्गवास सं० १२२६ में हुआ । अतएव इसी बीच प्रस्तुत काव्य का रचना-काल आता है । कुमारपाल हेमचन्द्र के समय गुजरात के चालुक्यवंशी नरेश थे; और उन्हीं के प्रोत्साहन से कवि ने अपनी अनेक रचनाओं का निर्माण किया था। प्रस्तुत ग्रन्थ अपनी एक बहुत बड़ी विशेषता रखता है । हेमचन्द्र ने अपना एक महान शब्दानुशासन लिखा है, जिसके प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत के एवं अन्तिम अष्टम अध्याय में प्राकृत के व्याकरण का सूत्रों द्वारा स्वयं अपनी वृत्ति सहित निरूपण किया है। इसी व्याकरण के नियमों के उदाहरणों के लिये उन्होंने द्वयाश्रय काव्य की रचना की है, जिसमें एक और कुमारपाल नरेश के वंश का काव्य की रीति से वर्णन किया गया है; और साथ ही साथ अपने सम्पूर्ण व्याकरण के सूत्रों के उसी क्रम से उदाहरण उपस्थित किये गये हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ में अट्ठाईस सर्ग हैं, जिनमें प्रथम २० सर्गो में कुमारपाल के वंश व पूर्वजों का इतिहास, और संस्कृत व्याकरण के उदाह
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