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________________ १३६ प्राकृत में विशेष कथाग्रन्थ-पद्यात्मक तीर्थंकरों के चरित्रों के अतिरिक्त प्राकृत में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें किसी व्यक्तिविशेष के जीवन चरित्र द्वारा जैनधर्म के किसी विशेष गुण, जैसे संयम, उपवास पूजा, विधि-विधान, पात्र दान आदि का माहात्म्य प्रकट किया गया है । ये रचनाएं अपनी शैली व प्रमाणादि की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त की जा सकती है । एक वे ग्रन्थ हैं जिनमें प्राकृत पद्यात्मक रचनाएं ही पाई जाती हैं, एवं जिनमें छंद, अलंकार आदि का भी वैशिष्ट्य दिखाई देता है । अतएव इन्हें हम प्राकृत काव्य कह सकते हैं । दूसरी वे रचनाएं हैं जिनमें मुख्यतः प्राकृत गद्य शैली में किसी व्यक्ति विशेष का जीवन वृत्तान्त कहा गया है । तीसरे प्रकार वे ग्रन्थ हैं जो बहुधा कथाकोष के नाम से प्रकट किये गये हैं; और जिनमें कहीं पद्य, और कहीं मिश्रित रूप से अपेक्षा कृत संक्षेप में धार्मिक स्त्री-पुरुषों के चरित्र वर्णित किये गये हैं । जैन साहित्य सबसे अधिक प्राचीन प्राकृत काव्य पादलिप्तसूरि कृत तरंगवती कथा का उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रन्थों, जैसे अनुयोगद्वार सूत्र, कुवलयमाला, तिलकमंजरी आदि में मिलता हैं । 'विसेसनिसीह चूणि' में नरवाहनदत्त की कथा को लौकिक व तरंगवती और मगधसेना आदि कथाओं को लोकोत्तर कहा गया है । हालकृत गाथा सप्तशती में पादलिप्त कृत गाथाओं का संकलन पाया जाता है । प्रभाचन्द्र कृत प्रभावक - चरित्र में ( १३ वां शती) पादलिप्तसूरि का जीवनवृत्त पाया जाता है, जिसमें उनके विद्याधर कुल व नागहस्ति गुरु का उल्लेख है । इन उल्लेखों पर से इस रचना का काल ई० सन् ५०० से पूर्व सिद्ध होता है । दुर्भाग्यतः यह ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हो सका, किन्तु लगभग १५ वीं शती में वीरभद्र के शिष्य नैमिचन्द्र ने इसका संक्षेप तरंगलोला नाम से १६४३ गाथाओं में प्रस्तुत किया है, जो प्रकाश में आ चुका हैं । ( नेमिविज्ञान ग्रन्थमाला वि० सं० २००० ) । इसका जर्मन में प्रोफेसर लायमन द्वारा, तथा गुजराती में नरसिंह भाई पटेल द्वारा किये हुए अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। तरंगलोलाकार ने स्पष्ट कहा है कि तरंगवती कथा देशी-वचनात्मक, बड़ी विशाल और विचित्र थी, जिसमें सुन्दर कुलकों, कहीं गहन युगलों और कहीं दुर्गम षट्कलों का प्रयोग हुआ था । वह विद्वानों के ही योग्य थीं; जनसाधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते थे । अतएव उस रचना की गाथाओं को संक्षेपरूप से यहां प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उक्त कथा का लोप न हो। इस कथा में तरंगवती नामकी एक साध्वी जब भिक्षा के लिये नगर में गई उसके रूप से आकृष्ट होकर उसका जीवन-वृत्तान्त पूछा । साध्वी ने बतलाया कि जब वह युवती थी, तब एक चकवा पक्षी को देखकर उसे अपने पूर्व जन्म तब एक सेठानी ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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