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________________ प्रथमानुयोग-प्राकृत १३७ का स्मरण हो आया कि जब वह भी चकवी के रूप में गंगा के किनारे अपने प्रिय चकवे से साथ क्रीड़ा किया करती थी। वह एक व्याध के बाण से विद्ध होकर मर गया, तब मैंने भी प्राण परित्याग कर यह जन्म धारण किया। यह जाति-स्मरण होने पर मैंने अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त का चित्रपट लिखकर कौमुदी महोत्सव के समय कौशाम्बी नगर के चौराहे पर रखवा दिया । इसे देख एक सेठ के पुत्र पद्मदेव को भी अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया। हम दोनों का प्रेम बढ़ा, किन्तु पिताने उस युवक से मेरा विवाह नहीं किया; क्योंकि वह पर्याप्त धनी नहीं था। तब हम दोनों एक रात्रि नाव में बैठकर वहां से निकल भागे । घूमते भटकते हम एक चोरों के दल द्वारा पकड़े गये। चोरों ने कात्यायनी के सम्मुख हमारा बलिदान करना चाहा ! किन्तु मेरे विलाप से द्रवित होकर चोरों के प्रधान ने हमें छुड़वा दिया। हम कौशाम्बी वापिस आये; और धूमधाम से हमारा विवाह हो गया। कुछ समय पश्चात् मैं चन्दनबाला की शिष्या बन गई, और उन्हीं के साथ विहार करती हुई यहां आ पहुंची। इस जीवन-वृत्तान्त से प्रभावित होकर सेठानी ने भी श्रावक-व्रत ले लिये। इस कथानक की अनेक घटनाएं सुबंधु, बाण आदि संस्कृत कवियों की रचनाओं से मेल खाती है । नरबलि का प्रसंग तो भवभूति के मालती-माधव में वर्णित प्रसंग से बहुत कुछ मिलता है। हरिभद्रसूरि (८ वीं शती) कृत धूर्ताख्यान में ४८५ गाथाएं हैं, जो पांच आख्यानों में विभाजित हैं। उज्जनी के समीप एक उद्यान था, जिसमें एक बार पांच धूर्तों के दल संयोग वश आकर एकत्र हो गए । वर्षा लगातार हो रही थी, और खाने-पीने का प्रबन्ध करना कठिन प्रतीत हो रहा था। पांचों दलों के नायक एकत्र हुए, और उनमें से एक मूलदेव ने यह प्रस्ताव किया कि हम पांचों अपने-अपने अनुभव की कथा कहकर सुनायें। उसे सुनकर दूसरे अपने कथानक द्वारा उसे सम्भव सिद्ध करें। जो कोई ऐसा न कर सके, और आख्यान को असम्भव बतलावे, वही उस दिन समस्त धूर्तों के भोजन का खर्च उठावे । मूलदेव, कंडरीक, एलाषाढ़ और शश नामक धूर्तराजों ने अपने अपने असाधारण अनुभव सुनाये; जिनका समाधान पुराणों के अलौकिक वृत्तान्तों द्वारा दूसरों ने कर दिया। पांचवा वृत्तान्त खंडपाना नामकी धूर्तनी का था। उसने अपने वृत्तान्त में नाना असम्भव घटनाओं का उल्लेख किया; जिनका समाधान क्रमशः उन धूतों ने पौराणिक वृत्तान्तों द्वारा कर दिया; तथापि खंडपाना ने उन्हें सलाह दी कि वे उसको अपनी स्वामिनी स्वीकार कर लें; तो वह उन्हें भोजन भी करावेगी और वे पराजय से भी बच जायेंगे । किन्तु अपनी यहां तक की विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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