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________________ प्रथमानुयोग-प्राकृत १३५ चन्द्रप्रभ पर यशोदेव कृत (सं० ११७८) तथा श्रीचन्द्र के शिष्य हरिभद्रकृत (सं० १२२३), ११ वें श्रेयांस पर अजितसिंह कृत और १२ वें वासुपूज्य पर चन्द्रप्रम कृत चरित्र-ग्रन्थ पाये जाते हैं । १४ वें तीर्थकर अनन्तनाथ का चरित्र नेमिचन्द्र द्वारा वि० सं० १२१३ में लिखा गया। १६ वें तीर्थकर शान्तिनाथ का चरित्र देवचन्द्र सूरि द्वारा वि० सं० ११६० में तथा दूसरा मुनिभद्र द्वारा वि० सं० १३५३ में लिखा गया । देवसूरि कृत रचना लगभग १२००० श्लोक प्रमाण हैं । १६ वें मल्लिनाथ तीर्थकर के चरित्र पर दो रचनाएं मिलती हैं; एक श्रीचन्द्र सूरि के शिष्य हरिभद्र द्वारा सर्वदेवगणि की सहायता से; और दूसरो जिनेश्वर सूरि द्वारा । १२ वीं शती में ही २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत का चरित्र श्रीचन्द्र द्वारा लगभग ११००० गाथाओं में लिखा गया । २२ वें नेमिनाथ पर भी तीन रचनायें उपलब्ध हैं, एक मलधारी हेमचन्द्र कत, दूसरी जिनेश्वर सूरि कृत वि० सं० ११७५ को, और तीसरी रत्नप्रभ सूरि कृत वि० संवत् १२२३ की । २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित्र अभयदेव के प्रशिष्य देवभद्र सूरि द्वारा वि० सं० ११६८ में रचा गया । रचना गद्य-पद्य मिश्रित है । अन्तिम तीर्थंकर पर 'महावीरचि-रयं' नामक तीन रचनाएं (प्रका० अम.दाबाद १६४५) उपलब्ध हैं; एक सुमति वाचक के शिष्य गुणचन्द्र गणिकृत, दूसरी देवेन्द्रगणि अपर नाम नेमिचन्द्र, और तीसरी देवभद्र सूरिकत । इन सबसे प्राचीन महावीर चरित्र आचारांग व कल्पसूत्र में पाया जाता है। कल्पसूत्र में वणित चरित्र अपनी काव्यात्मक शैली में ललितविस्तर में वणित बुद्धचरित से मिलता है। यह रचना भद्रबाह कृत कही जाती है। उक्त समस्त रचनाओं की भाषा व शैली प्रायः एक सी है । भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, किन्तु कहीं कहीं शौरसेनी की प्रवृतियां भी पाई जाती है। शैली प्रायः पौराणिक है; किन्तु कवि की प्रतिमानुसार उनमें छंद, अलंकार, रस-भाव आदि काव्य गुणों का तरतम भाव पाया जाता है। प्रत्येक रचना में प्रायः चरित्रनायक के अनेक पूर्व भवों का वर्णन किया गया है। जो ग्रन्थ के एक तृतीय भाग से कहीं अर्द्ध-भाग तक पहुँच गया है शेष में भी उपाख्यानों और उपदेशों की बहुलता पाई जाती है। नायक के चरित्र वर्णन में जन्म-नगरी की शोभा, माता-पिता, का वैभव, गर्भ और जन्म समय के देव-कृत अतिशय, कुमार-क्रीड़ा और शिक्षा-दीक्षा, प्रवृज्या और तपस्या की कठोरता, परिषहों और उपसर्गो का सहन, केवलज्ञानोत्पत्ति, समवशरण-रचना धर्मोपदेश, देश-प्रदेश बिहार, और अन्ततः निर्वाण, इनका वर्णन कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से; कहीं सरल रूप में और कहीं कल्पना, लालित्य और प्रलंकार से भरपूर पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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