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- जैन साहित्य
विजय व समागम, पूर्व भवों का वर्णन आदि विस्तार से करके अन्त में राम को केवलज्ञान की उत्पत्ति, और उनकी निर्वाण-प्राप्ति के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है । यहाँ राम का कथानक कई बातों में वाल्मीकि रामायण से अपनी विशेषता रखता है। यहाँ हनुमान सुग्रीव आदि वानर नहीं, किन्तु विद्याधर थे, जिनका ध्वज चिह्न वानर होने के कारण वे वानर कहलाने लगे रावण के दशमुख नहीं थे; किन्तु उसके गले में पहनाये गये हार के मणियों में प्रतिबिम्बित नौ अन्य मुखों के कारण वह दशमुख कहलाया । सीता यथार्थतः जनक की ही औरस कन्या थी; और उसका एक भाई भामंडल भी था । राम ने बर्बरों द्वारा किये गये आक्रमण के समय जनक की सहायता की; और उसी के उपलक्ष्य में जनक ने सीता का विवाह राम के साथ करने का निश्चय किया । सीता के भ्राता भामंडल को उसके बचपन में ही विद्याधर हर ले गया था। युवक होने पर तथा अपने सच्चे माता पिता से अपरिचित होने के कारण उसे सीता का चित्रपट देखकर उस पर मोह उत्पन्न हो गया था, और वह उसी से अपना विवाह करना चाहता था। इसी विरोध के परिहार के लिये धनुष-परीक्षा का आयोजन किया गया, जिसमें राम की विजय हुई। दशरथ ने जब वृद्धत्व आया जान राज्यभार से मुक्त हो, वैराग्यधारण करने का विचार किया; तभी गंभीर-स्वभावी भरत को भी वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया। इस प्रकार अपने पति और पुत्र दोनों के एक साथ वियोग की आशंका से भयभीत होकर केकयी ने अपने पुत्र को गृहस्थी में बांधे रखने की भावना से उसे ही राज्य पद देने के लिये दशरथ से एकमात्र वर मांगा; और राम, दशरथ की आज्ञा से नहीं, किन्तु स्वेच्छा से वन को गये । इस प्रकार कैकेयी को किसी दुर्भावना के कलंक से बचाया गया है। रावण के आधिपत्य को स्वीकार करने के प्रस्ताव को ठुकराकर बालि स्वयं अपने लघु भ्राता सुग्रीव को राज्य देकर प्रवृजित हो गया था; राम ने उसे नहीं मारा । रावण को यहां ज्ञानी और व्रती चित्रित किया गया है । वह सीता का अपहरण तो कर ले गया; किन्तु उसने उसकी इच्छा के प्रतिकूल बलात्कार करने का कभी विचार या प्रयत्न नहीं किया; और प्रेम की पीड़ा से वह घुलता रहा । जब स्वयं उसकी पत्नी मंदोदरी ने रावण के सुधारने का दूसरा कोई उपाय न देख, सच्ची पत्नी के नाते उसे बलपूर्वक भी अपनी इच्छा पूर्ण कर लेने का सुझाव दिया; तब उसने यह कहकर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि मैंने किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध कभी संभोग न करने का व्रत ले लिया है। जिसे मैं कभी भंग न करूंगा। रावण के स्वयं अपने मुख से इस व्रत के उल्लेख द्वारा कवि ने न केवल उसके चरित्र को ऊंचा उठाया है, किन्तु सीता के अखण्ड पातिदत का भी एक निरसंदेह
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