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________________ प्रथमानुयोग-प्राकृत १३३ प्रमाण उपस्थित कर दिया है। रावण की मृत्यु यहां राम के हाथ से नहीं, किन्तु लक्ष्मण के हाथ से कही गई है। राम के पुत्रों के नाम यहां लवण और अंकुश पाये जाते हैं। इस प्रकार की अनेक विशेषताएं इस कथानक में पाई जाती है। जिनका उद्देश्य कथा को अधिक स्वाभाविक बनाना, और मानव चरित्र को सभी परिस्थितियों में उंचा उठाये रखना प्रतीत होता है। कथानक के बीच में प्रसंगवश नाना अवान्तर कथाएं व धर्मोपदेश भी गुथे हुए हैं। पउमचरियं के अतिरिक्त विमलसूरि की और कोई रचना अभी तक प्राप्त नहीं हुई; किन्तु शक संवत ७०० (ई० सन् ७७८) में बनी कुवलयमाला में उसके कर्ता उद्योतनसूरि ने कहा है कि बुहयण-सहस्स-वइयं हरिवंसुप्पत्ति-कारयं पढमं । वामि वंदियं पि हु हरिवंसं चेव विमलपयं ॥ अर्थात् मैं सहस्त्रों बुधजनों के प्रिय हरिवंशोत्पति के प्रथम कारक अर्थात् रचयिता विमलपद हरिवंश की ही वन्दना करता हूँ । इस उल्लेख पर से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः विमलसूरि ने हरिवंश-कथात्मक ग्रन्थ की भी रचना की थी। ___ ऊपर कहा जा चुका है कि समवायांग सूत्र में यद्यपि नामावलियां समस्त त्रेसठ शलाका पुरुषों की निबद्ध की गई हैं, तथापि उनमें से ६ प्रतिवासुदेवों को छोड़कर शेष ५४ को ही उत्तमपुरुषों कहा है। इन्हीं ५४ उत्तमपुरुषों का चरित्र शीलांकाचार्य ने अपने 'चउपन्नमहापुरिस-चरिय' में किया है। जिसकी रचना वि० सं० २५ ई०-सन् ८६८ में समाप्त हुई । यह ग्रन्थ प्राकृत गद्य में व यत्र तत्र पद्यों में रचा गया है । तीर्थकरों व चक्रवतियों का चरित्र यहां पूर्वोक्त नामावलियों के आधार से जैन परम्परानुसार वर्णन किया गया है। किन्तु विशेष तुलना के लिये यहां राम का आख्यान ध्यान देने योग्य है । अधिकांश वर्णन तो संक्षेप से विमलसूरि कृत पउमचरियं के अनुसार ही है, किन्तु कुछ बातों में उल्लेखनीय भेद दिखाई देता है । जिस रावण की भगिनी को पउमचरियं में सर्वत्र चन्द्रनखा कहा गया है। उसका नाम यहां सूर्पनखा पाया जाता है । पउमचरियं में रावण ने लक्ष्मण के स्वर में सिंहनाद करके राम को धोखा देकर सीता का अपहरण किया; किन्तु यहां स्वर्णमयी मायामृग का प्रयोग पाया जाता है। पउमचरियं में बालि स्वयं सुग्रीव को राज्य देकर प्रवृजित हो गया था; किन्तु यहां उसका राम के हाथ से वध हुआ कहा गया है। यहां सीता को अपहरण के पश्चात् सम्बोधन करने वाली त्रिजटा का उल्लेख आया है, जो पउमचरिय में नहीं है । इन भेदों से सुस्पष्ट है कि शीलांक की रचना में बाल्मीकि कृत रामायण का प्रभाव अधिक पड़ा है, यद्यपि ग्रन्थ के अन्त में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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