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________________ जैन साहित्य प्रारम्भ विमलसूरि ने किया । जिस प्रकार संस्कृत साहित्य में आदि काव्य वाल्मीकि कृत रामायण माना जाता है, उसी प्रकार प्राकृत का आदि काव्य भी विमलसूरि कृत पउमचरियं (पद्मचरितम् ) है । इस काव्य के प्रन्त की प्रशस्ति में इसके कर्ता व रचना - काल का निर्देश पाया जाता है। यहां कहा गया है कि स्व-समय औौर पर समय अर्थात् अपने धर्म तथा अन्यधर्म के ज्ञायक रोहू नामके आचार्य हुए । उनके शिष्य थे नाइल कुलवंशी विजय, और विजय के शिष्य विमलसूरि ने पूर्वगत में से नारायण और सीरि (बलदेव) के चरित्र सुनकर इस काव्य की रचना की, जिसकी समाप्ति महावीर के सिद्ध होने के उपरान्त दुषमाकाल के ५३० वर्ष व्यतीत होने पर हुई । त्रिलोक- प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों के अनुसार वीर निर्वाण से ३ वर्ष ८ मास और १ पक्ष व्यतीत होने पर दुषमाकाल का प्रारम्भ हुआ ( ति० प०४, १४७४) । अब यदि हम पहले कहे अनुसार महावीर का निर्वाण-काल ई० पू० ५२७ की कार्तिक कृष्ण अमावस्या को मानते हैं, तो पउमचरिय की समाप्ति का काल आसाढ़ शुक्ल पूर्णिमा सन् ७ ई० सिद्ध होता है । किन्तु कुछ विद्वान, जैसे जैकोबी, ग्रन्थ रचना के इस काल को ठीक नही मानते, क्योंकि एक तो ग्रन्थ की भाषा अधिक विकसित है, और दीनार, लग्न आदि ऐसे शब्द आये हैं जो यूनान से लिये गये प्रतीत होते हैं । दूसरे उसमें कुछ ऐसे छन्दों का उपयोग हुआ है, जिनका आविष्कार सम्भवतः उस समय तक नहीं हुआ था । अतः विद्वान् इसका रचना - काल तीसरी चौथी शती ई० अनुमान करते हैं । यथार्थतः ये मत बहुत कुछ काल्पनिक व अपर्याप्त प्रमाणों पर आधारित हैं । वस्तुतः अभी तक ऐसा कोई प्रमाण सम्मुख नहीं लाया जा सका, जिसके कारण ग्रन्थ में निर्दिष्ट समय पूर्णतः असिद्ध किया जा सके । यह बात अवश्य है कि इसकी भाषा में हमें महाराष्ट्री प्राकृत का प्रायः निखरा हुआ रूप दिखाई देता है; और महाराष्ट्री के विकास का काल लगभग ई० की दूसरी शताब्दी माना जाता है । दूसरी यह बात भी चिन्तनीय है कि जैन साहित्य में अन्य कोई इस शैली का प्राकृत काव्यछठी सातवीं शती से पूर्व का नहीं मिलता । १३० पउमचरिय के कर्त्ता ने अपने न्थ विषयक आदि स्त्रोतों के विषय में यह सूचित किया है कि उन्होंने नारायण और बलदेव ( लक्ष्मण और राम ) का चरित्र पूर्वगत में से सुना था ( उ० ११८, गा० ११८) । यद्यपि पूर्वो के प्राप्त परिचय में कथात्मक साहित्य का उल्लेख नहीं पाया जाता; तथापि १२ वें दृष्टिवाद के भेदों में प्रथमानुयोग और पूर्वगत, दोनों साथ साथ निर्दिष्ट हैं । पउमचरिय में यह भी कहा गया है कि जो पद्मचरित पहले नामावली निबद्ध और प्राचार्य, परम्परागत था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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