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प्रथमानुयोग-प्राकृत
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मुख्य आर्यिकाओं के नाम, श्रावकों की संख्या, मुक्ति की तिथि, काल व नक्षत्र तथा साथ में मुक्त हुए जीवों की संख्या; मुक्ति से पूर्व का योग-काल, मुक्त होते समय के आसन अनुबद्ध केवलियों की संख्या, अनुत्तर जानेवालों की संख्या मुक्तिप्राप्त यति-गणों की संख्या, मुक्ति प्राप्त शिष्यगणों का मुक्तिकाल स्वर्गप्राप्त शिष्यों की संख्या, भाव श्रमणों की संख्या आदि; और अंतिम तीर्थकरों का मुक्तिकाल और परस्पर अन्तराल एवं तीर्थ-प्रवर्तन काल। यह सब विस्तार १२७८वीं गाथा में समाप्त होकर तत्पश्चात् चक्रवतियों का विवरण प्रारम्भ होता है, जिसमें उनके शरीरोत्सेध, आयु, कुमारकाल, मंडलीक-काल, दिग्विजय, विभव, राज्यकाल, संयमकाल और पर्यान्तर प्राप्ति (पुनर्जन्म) का वर्णन गाथा १४१० तक किया गया है। इसके पश्चात् बलदेव, वासुदेव और उनके प्रतिशों (प्रतिवासुदेवों) के नामों के अतिरिक्त वे किस-किस तीर्थंकर के तीर्थ में हुए इसका निर्देश किया गया है, और फिर उनके शरीर-प्रमाण प्रायु-कुमारकाल और मंडलीक काल; तथा शक्ति, धनुष आदि सात महारत्नों व मुसल आदि चार रत्नों के उल्लेख के पश्चात् गाथा १४३६ में कहा गया है कि समस्त बलदेव निदान रहित होने से मरण के पश्चात् ऊर्ध्वगामी व सब नारायण निदान सहित होने से अधोगामी होते हैं । यह गाथा कुछ शाब्दिक हेर-फेर के साथ वही है जो समवायांग के २६३ वें सूत्र के अन्तर्गत आई है। इसके पश्चात् उनके मोक्ष, स्वर्ग व नरक गतियों का विशेष उल्लेख है। गा० १४३७ में यह निर्देश किया गया है कि अन्तिम बलदेव, कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता, ब्रह्मस्वर्ग को गये हैं। और अगले जन्म में वे कृष्ण तीर्थकर के तीर्थ में सिद्धि को प्राप्त होंगे। इसके पश्चात् ११ रुद्र, ९ नारद और २४ कामदेव, इनका वृतांत गा० १४३६ से १४७२वीं गाथा तक दिया गया है। और तदनन्तर दुःषम काल का प्रवेश, अनुबुद्ध केवली, १४ पूर्वधारी, १० पूर्वधारी, ११ अंगधारी, आचारांग के धारक, इनका काल-निर्देश करते हुए, शक राजा की उत्पत्ति, उसके वंश का राज्यकाल; गुप्तों और चतुर्मुख के राज्यकाल तक महावीर के निर्वाण से १००० वर्ष तक की परम्परा; तथा दूसरी और महावीर निर्वाण की रात्रि में राज्याभिषिक्त हुए अवन्ति राज पालक, विजयवंश, मुरुण्ड वंश, पुष्यमित्र, वसुमित्र, अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाहन, भृत्यान्ध्र और गुप्तवंश तथा कल्कि चतुमुख के राज्यकाल की परम्परा द्वारा वीर-निर्वाण से वही १००० वर्ष का वृतान्त दिया गया है। बस यहीं पर तिलोय पण्णति का पौराणिक व ऐतिहासिक वृतांत समाप्त होता है (गा० १४७६-१५१४) ।।
जैन साहित्य में महापुरुषों के चरित्र को नवीन काव्य शैली में लिखने का
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