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________________ जैन साहित्य १२८ स्तोत्र माना जाता है । चौथे श्रुतांक समवायांग के भीतर २४६ से २७५ वें सूत्र तक जो कुलकरों, तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों का वर्णन आया है, उसका भी ऊपर निर्देश किया जा चुका है । समवायांग के उस वर्णन की अपनी निराली ही प्राचीन प्रणाली है । वहां पहले जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी काल में चौबीसों तीर्थकरों के पिता, माता, उनके नाम, उनके पूर्वभव के नाम, उनकी शिविकाओं के नाम, निष्क्रमण भूमियाँ, तथा निष्कमण करने वाले अन्य पुरुषों की संख्या, प्रथम भिक्षादाताओं के नाम, दीक्षा से प्रथम आहार ग्रहण का कालान्तर, चैत्यवृक्ष व उनकी ऊँचाई तथा प्रथम शिष्य और प्रथम शिष्यनी, इन सबकी नामावलियां मात्र क्रम से दी गई हैं । तीर्थकरों के पश्चात् १२ चक्रवर्तियों के पिता, माता, स्वयं चक्रवर्ती और उनके स्त्रीरत्न क्रमशः गिनाये गये हैं । तत्पश्चात् ९ बलदेव और ९ वासुदेवों के पिता, माता, उनके नाम, उनके पूर्वभव के नाम व धर्माचार्य, वासुदेवों की निदान भूमियां और निदान कारण (स० २६३), इनके नाम गिनाये गये हैं । विशेषता केवल बलदेवों और वासुदेवों की नामावली में यह है कि उनसे पूर्व उत्तम पुरुष, प्रधान पुरुष, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी कान्त, सौम्य, सुभग आदि कोई सौ से भी ऊपर विशेषण लगाये गये हैं । तत्पश्चात् इनके प्रतिशत्रु (प्रति वासुदेव) के नाम दिये गये हैं । इसके पश्चातु भविष्य काल के तीर्थकर आदि गिनाये गये हैं । यहां यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि यद्यपि उक्त नामावलियों में त्रेसठ पुरुषों का वृत्तान्त दिया गया है; तथापि उससे पूर्व १३२वें सूत्र में उत्तम पुरुषों की संख्या ५४ कही गई है, ६३ नहीं; अर्थात् ६ प्रतिवासुदेवों को उत्तम पुरुषों में सम्मिलित नहीं किया गया । यतिवृषभ कृत तिलोय पण्णत्ति के चतुर्थं महा अधिकार में भी उक्त महापुरुषों का वृतान्त पाया जाता है । इस अधिकार में की गाथा ४२१ से ५०६ तक चौदह मनुओं या कुलकरों का उल्लेख करके क्रमशः १४११वीं गाथा तक उनका वही वर्णन दिया गया है जो ऊपर बतलाया जा चुका है । किन्तु विशेषता यह है कि यहां अनेक बातों में अधिक विस्तार पाया जात है, जैसेतीर्थकरों की जन्मतिथियां और जन्मनक्षत्र, उनके वंशों का निर्देश, जन्मान्तराल श्रयु प्रमाण, कुमार काल, उत्सेध, शरीर वर्ण, राज्यकाल चिह्न, राज्य पद, वैराग्य कारण व भावना; दीक्षा स्थान, तिथि, काल व नक्षत्र और वन तथा उपवासों के नाम-निर्देश; दीक्षा के पूर्व की उपवास संख्या, पारणा के समय नक्षत्र और स्थान, केवलज्ञान का अन्तरकाल, समोसरण की रचना का विस्तार पूर्वक वर्णन (गाथा ७१० से ९३३ तक), यक्ष-यक्षिणी केवलि-काल गणधरों की संख्या, ऋद्धियों के भेद, ऋषियों की संख्या, सात गण, आर्यिकाओं की सख्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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