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________________ १०८ मुनिआचार संस्कृत : प्रशमरति प्रकरण उमास्वीति कृत माना जाता है । इसमें ३१३ संस्कंत पद्यों में जैन तत्वज्ञान, कर्म सिद्धान्त, साधु वे गृहस्थं श्राचार, अनित्यादि बारह भावनाओं, उत्तमक्षमोदि देशधमों एवं धर्मध्यान, केवलज्ञान, अंयोगी, व सिद्धीं की स्वरूप सरल और सुन्दर शैली में वर्णित पाया जाता है। टीकाकार हरिभद्रं सूरि ने इसको विषय की दृष्टि से २२ अधिकारों में विभाजित किया है । ( सटीक हिन्दी अनु० सहिते प्रका० बम्बई, १६५० ) · जैन साहित्य मुनि आचार पर एक चारित्रसार नामक संस्कृत ग्रन्थ की पुष्पिका में कहा गया है कि इस ग्रन्थ को अजितसेन भट्टारक के चरणकमलों के प्रसाद से चारों अनुयोगों रूप समुद्र के पारगामी धर्मविजय श्रीमद् चामुण्डराय ने बनाया । इस पुष्पिका से पूर्व श्लोक में कहा गया है कि इसमें अनुयोगवेदी रणरंगसिंह ने तत्वार्थ-सिद्धान्त, संभवतः तत्वार्थ (राजेवार्तिक, ) महापुराण एवं आचार शास्त्रों में विस्तार से वर्णित चारित्रसार का संक्षेप में वर्णन किया है । कर्ता के संबंध में इस परिचय से सुस्पष्ट ज्ञात होता हैं कि इसकी रचना उन्हीं चामुण्डराय ने अथवा उनके नाम से किसी अन्य ने संग्रहरूप से की है, जिनके द्वारा बाहुबलि मूर्ति श्रवणगीला में प्रतिष्ठित की गई थी, तथ- जिनके निमित्त से नेमिचन्द्र सिखांग्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की थी । अतः इस ग्रन्थ की रचनाकाल ११ वीं शताब्दी निश्चित है । ग्रन्थ का दूसरा नाम 'भावनीसारसंग्रह भी प्रतीत होता है | ० आचार विषयक ग्रन्थों में अमृतचेन्द सूरि कृत 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' (अपर नाम 'जिन प्रवचन - रहस्य - कोष' ) कई बातों में अपनी विशेषता रखता है । यहाँ २२६ संस्कृत पद्यों में रत्नत्रय का व्याख्यान किया गया है, जिसमें क्रमश: चारित्रविषयक अहिंसादि पांच व्रत, सात शील (३ गुणव्रत - ४ शिक्षाव्रत ), सल्लेखना, तथा सम्यवत्व और सल्लेखना को मिलाकर चौदह व्रत - शीलों के ७० अतिचार, इनका स्वरूप समझाया है, और १२ तर्प ६ अविश्यक ३ दंड, ५ समिति, १० धर्म, १२ भावना और २२ परीषह, इन सबे का निर्देश किया है। यहां हिंसा और अहिंसा के स्वरूप पर सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया गया है, जैसा अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता। यही नहीं, किन्तु शेष व्रतों और शीलों में भी मूलतः अहिंसा की ही भावना स्थापित की है। आदि में आत्मा को ही पुरुष और परिणामी नित्य बतलाकर उसके द्वारा समस्त विवर्तो को पार कर पूर्ण स्व की प्राप्ति को ही अर्थसिद्धि बतलाया है, और यही ग्रन्थ के नाम की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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