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________________ चरणानुयोग-श्रावकधर्म १०६ सार्थकता है। ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने एक पद्य में जैन अनेकान्त नीति को गोपी की उपमा द्वारा बड़ी सुन्दरता से स्पष्ट किया है । ग्रन्थ की शैली आदि से अन्त तक विशद और विवेचनात्मक है। इस ग्रन्थ के कोई ६०-७० पद्य जयसेनकृत धर्म-रत्नाकर में उद्धृत पाये जाते हैं । धर्मरत्नाकर की रचना का समय स्वयं उसी को प्रशस्ति के अनुसार वि० सं० १०५५ ई० ६६८ है। अतएव यही पुरुषार्थसिद्धयुपाय के रचनाकाल की उत्तरावधि है। वीरनंदि कृत प्राचारसार में लगभग १००० संस्कृत श्लोकों में मुनियों के मूल और उत्तर गुणों का वर्णन किया गया है । इसके १२ अधिकारों के विषय हैं-मूलगुण, सामाचार, दर्शनचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, शुद्धयष्टक, षडावश्यक, ध्यान, जीवकर्म और दशधर्मशील । इसकी रचना वट्टकेर क्रत प्राकत मूलाचार के आधार से की गई प्रतीत होती है। ग्रन्थकर्ता ने अपने गुरु का नाम मेघचन्द्र प्रगट किया है। श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ५० में इन दोनों गुरु-शिष्यों का उल्लेख है, एवं शिलालेख नं. ४७ में मेघचन्द्र मुनि के शक संवत् १०३७ (ई० १११५) में समाधिमरण का उल्लेख किया गया है । इस पर से प्रस्तुत ग्रन्थ का रचनाकाल उक्त तिथि के आसपास सिद्ध होता है। उक्त लेखों में वीरनंदि को सिद्धान्तवेदी और लोकप्रसिद्ध, अमलचरित, योगि-जनाग्रणी आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। सोमप्रभ कृत सिन्दूरप्रकर, व शृंगार-वैराग्यतरंगिणी (१२वीं-१३वीं शती) ये दो नैतिक उपदेश पूर्ण रचनाएं हैं। दूसरी रचना विशेष रूप से प्रौढ़ काव्यात्मक है और उसमें कामशास्त्रानुसार स्त्रियों के हाव-भाव व लीलाओं का वर्णन कर उनसे सतर्क रहने का उपदेश दिया गया है। श्रावकाचार-प्राकृत : प्राकृत में श्रावकधर्म विषयक सर्वप्रथम स्वतंत्र रचना सावयपण्णत्ति है, जिसमें ४०१ गाथाओं द्वारा श्रावकों के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत, इन बारह व्रतों का प्ररूपण किया गया है। प्रथम व्रत अहिंसा का यहाँ सबसे अधिक विस्तार पूर्वक वर्णन १७१ के लेकर २५६ तक की गाथाओं में किया गया है। इस ग्रन्थ के कर्तृत्व के सम्बन्ध में मतभेद है। कोई इसे उमास्वातिकत मानते हैं, और कोई हरिभद्रकृत । उमास्वाति-कर्तृत्व का समर्थन अभयदेवसूरि कृत पंचाशकटीका के उस उल्लेख से होता है जहाँ उन्होंने कहा है कि 'वाचकतिलकेन श्रीमदुमास्वतिवाचकेन श्रावकप्रज्ञप्तौ सम्यक्त्वादिः श्रावकधर्मों विस्तरेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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