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________________ चरणानुयोग-मुनिधर्म १०७ का विस्तार से वर्णन किया गया है। आवश्यकनियुक्ति, वृहत्कल्पभाष्य व निशीथ आदि प्राचीन ग्रन्थों से इसकी अनेक गाथाएं व वृत्तान्त मिलते हैं। इस पर दो टीकाएं विस्तीर्ण और सुप्रसिद्ध हैं-एक अपराजित सूरि कृत विजयोदया और दूसरी पं० आशाधर कृत मूलाराधनावर्पण । अपराजित सूरि का समय लगभग ७ वीं, ८ वीं शती ई०, तथा पं० आशाधर का १३ वीं शती ई० पाया जाता है। इस पर एक पंजिका तथा भावार्थदीपिका नामकी दो टीकाएं भी मिली हैं। ____ मुनि आचार पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हरिभद्रसूरि (८वीं शती) कृत पंचवत्थुग (पंचवस्तुक) नामक ग्रन्थ उपलभ्य है। इसमें १७१४ प्राकृत गाथाएं हैं जो विषयानुसार निम्न पांच वस्तु नामक अधिकारों में विभक्त हैं- (१) मुनि-दीक्षा, (२) यतिदिनकृत्य, (३) गच्छाचार, (४) अनुज्ञा और (५) सल्लेख ना । इनमें मुनि धर्म संबंधी साधनाओं का विस्तार तथा ऊहापोह पूर्वक वर्णन किया गया है। (प्रकाशित १९२७, गुज० अनुवाद, रतलाम, १६३७) । इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी है। हरिभद्रकृत सम्यक्स्व-सप्तति में १२ अधिकारों द्वारों सम्यक्त्व का स्वरूप समझाया गया है और सम्यक्त्व की प्रभावना बढ़ानेवालों में वज्रस्वामी, मल्लवादी, भद्रबाहु, पादलिप्त, सिद्धसेन आदि के चरित्र वर्णन किये गये हैं। जीवानुशासन में ३२३ गाथाओं द्वारा मुनिसंघ, मासकल्प, वंदना आदि मुनि चारित्र संबंधी विषयों पर विचार किया गया है । प्रसंगवश बिम्ब-प्रतिष्ठा का भी वर्णन आया है । इस ग्रंथ की रचना वीरचंद्र सूरि के शिष्य देवसूरि ने वि० सं० ११६२ (११०५ ई०) में की थी। _ नेमिचन्द्रसूरि (१३वीं शती) कृत प्रवचनसारोद्धार में लगभग १६०० गाथाएं हैं जो १७६ द्वारों में विभाजित हैं। यहां वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, महाव्रत, परीषह आदि अनेक मुनिचारित्र संबंधी विषयों का वर्णन किया गया है । पूजा-अर्चा के संबंध में तीथंकरों के लांछन, यक्ष-यक्षिणी अतिशय, जिनकल्प और स्थविरकल्प आदि का विवरण भी यहां प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । जैन क्रियाकाण्ड समझने के लिये यह ग्रंथ विशेष रूप से उपयोगी है । इस पर देवभद्र के शिष्य सिद्ध सेनसूरि (१३वीं शती) ने तत्वज्ञानविकासिनी नामक संस्कृत टीका लिखी है । जिनवल्लभसूरि (११-१२वीं शती) कृत द्वादशकुलक में सम्यकत्व और मित्यात्व का भेद तथा क्रोधादि कषायों के परित्याग का उपदेश पाया जाता है। इस पर जिनपाल कृतवृत्ति है जो वि० सं० १२६३ (बम्बई, सन् १२३६) में पूर्ण हुई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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