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________________ जैन साहित्य वृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेप प्रत्याख्यान, सामाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति, इन बारह अधिकारों में विभाजित हैं । यह सब यथार्थतः मुनि के उन अट्ठाईस गुणों का ही विस्तार है, जो प्रथम अधिकार के भीतर संक्षेप से निर्दिष्ट और वर्णित हैं । षडावष्यक अधिकार की कोई ८. गाथाएं आवश्यक नियुक्ति और उसके भाष्य से ज्यों की त्यों मिलती हैं। इस पर वसुनंदि कृत टीका मिलती है। टीकाकार सम्भवतः वे ही हैं जिन्होंने प्राकृत उपासकाध्यायन (श्रावकाचार) की रचना है। __ मुनि आचार पर एक प्राचीन रचना भगवती आराधना है, जिसके कर्ता शिवार्य हैं ! इन्होंने ग्रंथ के अन्त में प्रगट किया है कि उन्होंने आर्य जिननंदिगणि, सर्वगुप्तगणि' और मित्रनंदि के पादमूल में सूत्र और उसके अर्थ का भले प्रकार ज्ञान प्राप्त कर, पूर्वाचार्य-निबद्ध रचना के आश्रय से अपनी शक्ति अनुसार इस आराधना की रचना की। इससे सुस्पष्ट है कि उनके सम्मुख इसी विषय की कोई प्राचीन रचना थी। कल्पसूत्र की स्थविरावली में एक शिवभूति आचार्य का उल्लेख आया है, तथा आवश्यक मूल भाष्य में शिवभूति को वीर निर्माण से ६०६ वर्ष पश्चात् बोडिक (दिगम्बर) संघ का संस्थापक कहा है। कुदकुदाचार्य ने भावपाहुड में कहा है कि शिवभूति ने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में लोहार्य के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में शिवगुप्त मुनि का उल्लेख किया है, जिन्होंने अपने गुणों से अर्हबलि पद को धारण किया था। आदिपुराण में शिवकोटि मुनीश्वर और और उनकी चतुष्टय मोक्षमार्ग की आराधना रूप हितकारी वाणी का उल्लेख किया है । प्रभाचन्द्र के आराधना कथाकोश व देवचन्द्र कृत "राजावली कथे' में शिवकोटि को स्वामी समन्तभद्र का शिष्य कहा गया है। प्राश्चर्य नहीं जो इन सब उल्लेखों का अभिप्राय इसी भगवती आराधना के कर्ता से हो। ग्रन्थ सम्भवत: ई० की प्रारम्भिक शताब्दियों का है। एक मत यह है कि यह रचना यापनीय सम्प्रदाय की है, जिसमें दिगम्बर सम्प्रदाय का अचेलकत्व तथा श्वेताम्बर की स्त्री-मुक्ति मान्य थी । इस ग्रंथ में २१६६ गाथाएं हैं और उनमें बहुत विशदता व विस्तार से दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन्हीं चार आराधनाओं का वर्णन किया गया है, जिनका कुदकुंद की रचनाओं में अनेक बार उल्लेख आया है। प्रसंगवश जैनधर्म संबंधी सभी बातों का इनमें संक्षेप व विस्तार से वर्णन आ गया है मनियों की अनेक साधनाएं व वत्तियां ऐसी वर्णित हैं, जैसी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अन्यत्र नहीं पाई जातीं। गाथा १६२१ से १८९१ तक की २७१ गाथाओं में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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