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________________ चरणानुयोग-मुनिधर्म १०३ निर्दिष्ट नाम हितकर ) कहा है, और सम्भवतः यही इस पाहुड का कर्ता द्वारा है, जिसे उन्होंने भव्यजनों के बोधनार्थं कहा है । इस पाहुड में प्ररूपित उक्त ग्यारह विषयों के विवरण को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय नाना प्रकार के आयतन माने जाते थे, नाना प्रकार के चैत्यों, मंदिरों, मूर्तियों व बिंबों की पूजा होती थी, नाना मुद्राओं में साधु दिखलाई देते थे, तथा देव, तीर्थ व प्रवृज्या के भी नाना रूप पाये जाते थे । अतएव कुन्दकुन्द ने यह आवश्यक समझा कि इन लोक- प्रचलित समस्त विषयों पर सच्चा प्रकाश डाला जाय । यही उन्होंने इस पाहुड द्वारा किया है । भावपाहुड : (गाथा १६५ ) में द्रव्यलिंगी और भावलिंगी श्रमणों में भेद किया गया है और कर्ता ने इस बात पर जोर दिया है कि मुनि का वेष धारण कर लेते, व्रतों और तपों का अभ्यास करने, यहां तक कि शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता । आत्मकल्याण तो तभी होगा जब परिणामों में शुद्धि श्रा जाय, राग द्वेष आदि कषायभाव छूट जायं, और आत्मा का आत्मा में रमण होने लगे ( गा० ५६-५६ ) । इस संबंध उन्होंने अनेक पूर्वकालीन द्रव्य और भाव श्रमणों के उल्लेख किये हैं । बाहुfo, देहादि से विरक्त होने पर भी मान कषाय के कारण दीर्घकाल तक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सके (गाथा ४४ ) | मधुपिंग एवम् वशिष्ट मुनि श्राहारादि का त्याग कर देने पर भी चित्त में निदान (शल्य) रहने से श्रमणत्व को प्राप्त नहीं हो सके ( गाथा ४५-४६ ) | जिनलिंगी बाहु मुनि आभ्यन्तर दोष के कारण समस्त दंडक नगर को भस्म करके रौरव नरक में गये ( गाथा ४९ ) । द्रव्य श्रमण द्वीपायन सम्यग् दर्शन-ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्त संसारी हो गये । भयसेन बारह अंग और चौदह पूर्व पढ़कर सकल श्रुतिज्ञानी हो गये, तथापि वे भावश्रमगत्व को प्राप्त न कर सके ( गाथा ५२ ) । इनके विपरीत भावश्रमण शिवकुमार युवती स्त्रियों से घिरे होते हुए भी विशुद्ध परिणामों द्वारा संसार को पार कर सके, तथा शिवभूति मुनि तुष-माष की घोषणा करते हुए (जिस प्रकार छिलके से उसके भीतर का उड़द भिन्न है, उसीप्रकार देह और आत्मा पृथक् पृथक् हैं) भाव विशुद्ध होकर केवलज्ञानी हो गये । प्रसंगवश १५० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानी, एवं ३२ वैनयिक इस प्रकार ३६३ पाषंडों ( मतों) का उल्लेख आया है ( गा० १३७-१४२) । इस पाहुड में साहित्यक गुण भी अन्य पाहुडों की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं । जिसका मति रूपी धनुष, श्रुत रूपी गुण और रत्नत्रयरूपी बाण स्थिर हैं, वह परमार्थं रूपी लक्ष्य से कभी नहीं चूकता ( गा० २३ ) | जिनधर्म उसी प्रकार सब धर्मों में श्रेष्ठ है जैसे रत्नों में वज्र और वृक्षों में चन्दन ( गा० ८२) । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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