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________________ १०२ जैन साहित्य श्रावक व्रतों के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां दिशा-विदिशा प्रमाण अनर्थदंडवर्जन और भोगोपभोग-प्रमाण ये तीन गुणव्रत तथा सामयिक, प्रोषध, अतिथि पूजा और सल्लेखना, ये चार शिक्षा-व्रत कहे गये हैं। यह निर्देश त० सू० (७, २१) में निर्दिष्ट व्रतों से तीन बातों में भिन्न है-एक तो यहां भोगोपभोग-परिमाण को अनर्थदंड व्रत के साथ गुणवतों में लिया गया है, दूसरे यहां देशव्रत का कोई उल्लेख नहीं है; और तीसरे शिक्षाव्रतों में संल्लेखना का निर्देश सर्वथा नया है । यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि त. सू. (७-२१) में दिग्देशादि सात व्रतों का निर्देश एक साथ किया गया है, उसमें गुणवतों और शिक्षाक्तों का पृथग् निर्देश नहीं है। इनका निर्देश हमें प्रथम बार कुन्दकुन्द के इसी पाहुड में दिखाई देता है। हरिभद्रकृत श्रावकज्ञप्ति में गुणवतों का निर्देश कुन्दकुन्द के अनुकूल है, किन्तु शिक्षाक्तों में वहां संल्लेखना का उल्लेख न होकर देशावकाशिक का ही निर्देश है। अनगार संयम के संबंध में उल्लेखनीय बात यह है कि यहां पंचविंशति क्रियाओं व तीन गुप्तियों का समावेश नया है तथा उसमें लोच आदि सात विशेष गुणों का निर्देश नहीं पाया जाता, यद्यपि प्रवचनसार (गा० ३, ८) में उन सातों का निर्देश है, किन्तु तीन गुप्तियों का उल्लेख नहीं है। बोध पाहुड (गाथा ६२) में आयतन, चैत्य-गृह, प्रतिमा, दर्शन, बिंब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हत् और प्रवृज्या इन ग्यारह के सच्चे स्वरूप का प्ररूपण किया गया है, और पंचमहाव्रतधारी महर्षि को सच्चा आयतन, उसे ही चैत्य-गृह, वन्दनीय प्रतिमा; सम्यकत्व, ज्ञान व संयम रूप मोक्षमार्ग का दर्शन करानेवाला सच्चा दर्शन; उसी को तप और व्रतगुणों से युक्त सच्ची अंहंत मुद्रा; उसके ही ध्यान योग में युक्त ज्ञान को सच्चा ज्ञान, वही अर्थ, धर्म काम व प्रवृज्या को देनेवाला सच्चा देव, और उसी के निर्मल धर्म, सम्यक्त्व, संयम तप व ज्ञान को सच्चा तीथं बतलाया है। जिसने जरा, व्याधि, जन्म, मरण, चतुर्गति-गमन, पुण्य और पाप एवं समस्त दोषों और कर्मों का नाशकर अपने को ज्ञानमय बना लिया है, वही अर्हत् है, और जिसमें गृह और परिग्रह के मोह से मुक्ति, बाईस परीषह व सोलहकषायों पर विजय तथा पापारंभ से विमुक्ति पाई जाती है, वही प्रवृज्या है । इसमें शत्रु और मित्र, प्रशंसा और निंदा, लाम और अलाभ एवं तृण और कांचन के प्रति समताभाव पाया जाता है; उत्तम या मध्यम, दरिद्र या धनी के गृह से निरपेक्षमाव से पिण्ड (आहार) ग्रहण किया जाता है, यथा जात (नग्न दिगम्बर) मुद्रा धारण की जाती है। शरीर संस्कार छोड़ दिया जाता है; एवं क्षमा मादव प्रादि भाव धारण किये जाते हैं । इस पाहुड को कर्ता ने छक्काय सुहंकरं (षट्काय जीवों के लिये सुखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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