SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरणानुयोग-मनिधर्म धर्माचरण का मुख्य उद्देश्य है मोक्ष प्राप्ति; और मोक्ष की मांग है सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र । इन्हीं तीन का प्रतिपादन कुन्दकुन्द नै क्रमशः अपने दर्शन, सूत्र व चारित्र पाहुडों में किया है उन्होंने दर्शन पाहुड की १५ वीं गौथा में कहा है कि सम्यक्त्व (दर्शन) से ज्ञान और ज्ञान से संब भावों की उपलब्धि तथा श्रेय-अश्रय का बोध होती है, जिसके द्वारा शील की प्राप्ति होकर अन्ततः निर्वाण की उपलब्धि होती हैं। उन्होंने छह द्रव्य और नौ पदार्थों तथा पांच अस्तिकायों और सात तत्वों के स्वरूप में श्रद्धान करने वाले को व्यवहार से सम्यग्दृष्टि तथा आत्म श्रद्धानी को निश्चय सम्यग्दृष्टि कहाँ है (गाथा १६-२०)। सूत्र पाहुडे में बतलाया गया है कि जिसके अर्थ का उपदेश अर्हत् (तीर्थंकर) द्वारा, एवं ग्रंथ-रचना गणधरों द्वारा की गई है, वही सूत्र है और उसी के द्वारा श्रमण परमार्थ की साधना करते हैं (गाथा १) । सूत्र को पकड़कर चलने वाली पुरुष ही बिना भ्रष्ट हुए संसार के पार पहुंचे सकता है, जिस प्रकार कि सूत्र (धागा) से पिरोई हुई सुंई सुरक्षित रहती है और बिना सूत्र के खो जाती है (गाथा ३-४) । आगे जिनोंक्त सूत्र के ज्ञान से ही सच्ची दृष्टि की उत्पत्ति तथा उसे ही व्यवहार परमार्थ बतलाया गया है। सूत्रार्थपद से भ्रष्ट हुए साधक को मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये (गाया ५-७)। सूत्र संबंधी इन उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि कुन्दकुन्द के सम्मुख जिनागम सूत्र थे, जिनका अध्ययन और तद्नुसार वर्णन, वे मुनि के लिये आवश्यक समझते थे। आगे की गाथाओं में उन्होंने मुनि के नग्नत्व व तिल-तुष मात्र परिग्रह से रहितपना बतलाकर स्त्रियों की प्रवृज्या का निषेध किया है, जिससे अनुमान होता है कि कर्ता के समय में दिगम्बर-श्वेताम्बरं सम्प्रदाय भेद बद्धमूले हो गया था । चरित्र पाह के आदि में बतलाया गया है कि जो जाना जाय वह ज्ञान जो देखा जाय वह दर्शन, तथा इन दोनों के संयोग से उत्पन्न भाव चारित्र होता है, तथा ज्ञान-दर्शन युक्त क्रिया ही सम्यक चारित्र होता है । जीव के ये ही तीन भाव अक्षय और अनन्त हैं, और इन्हीं के शोधन के लिये जिनेन्द्र ने दो प्रकार का चारित्र बतलाया है-एक दर्शनज्ञानात्मक सम्यक्त्वं चारित्र और दूसरा संयम-धारित्र (गाथा ३-५)। आगे सम्यक्त्वं के निःशंकादिक आठ अंग (गाथा ७) संयम चरित्र के सागार और अनगार रूप दो भेद (गाथा २१), दर्शन, प्रेत आदि देशवती की ग्यारह प्रतिमाएँ (गाथा २२), अणुव्रत-गुणवत और शिक्षाक्त, द्वारा बारह प्रकार का सांगारधर्म (गायाँ २३.२७) तथा पंचेन्द्रिय संवर व पांच व्रत उनकी पच्चीस क्रियाओं सहितं, पांच समिति और तीन गुप्ति रूप अनगार संयम का प्ररूपण किया है (गाथा २८ आदि) । बारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy