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जैन साहित्य
ग्रन्थ की १७ वीं गाथा में मनुष्य, नारकी, तिथंच व देवों का भेद - विस्तार लाकविभाग से जानना चाहिये, ऐसा कहा है । इस उल्लेख के संबंध में विद्वानों में यह मतभेद है कि यहां लोक-विभाग नामक किसी विशेष रचना से तात्पर्य हैं, अथवा लोकविभाग संबंधी सामान्य शास्त्रों से । ग्रन्थ के टीकाकार मलधारि देव ने तो यहां स्पष्ट कहा है कि पूर्वोक्त जीवों का भेद लोकविभाग नामक परमागम में देखना चाहिये (लोक विभागाभिधान - परमागमे द्रष्टव्यः ) । लोकविभाग नामक संस्कृत ग्रन्थ मिलता है, जिसके कर्त्ता सिंहसूरि ने उसमें सर्वनंदि द्वारा शक सं० ३८० ( ई० सं० ४५८ ) में लिखित प्राकृत लोकविभाग का उल्लेख किया है । आश्चर्य नहीं जो यही लोक विभाग नियमसार के लेखक की दृष्टि में रहा हो । किसी बाधक प्रमाण के अभाव में इस काल को कुंदकुंद के काल की पूर्वावधि मानना अनुचित प्रतीत नहीं होता
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नियमसार पर संस्कृत टीका 'तात्पर्य वृत्ति' पद्मप्रभ मलधारिदेव कृत पाई जाती है । इस टीका के आदि में तथा पांचवें श्रुतस्कंध के अन्त में कर्त्ता ने वीरनंदि मुनि की वन्दना की है। चालुक्यराज त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वरदेव के समय शक सं० ११०७ के एक शिलालेख (एपी० इन्डि० १९१६-१७) में पद्मप्रभ मलधारिदेव और उनके गुरु वीरनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती का उल्लेख है । ये ही पद्मप्रभ इस टीका के कर्ता प्रतीत होते हैं ।
नियमसार में गाथा १३४ से १४० तक परमभक्तिरूप आवश्यकत्रिया का निरूपण है, जिसमें सभ्यक्त्व, ज्ञान व चरण में भक्ति, निर्वाणभक्ति, मोक्षगत पुरुषों की भक्ति एवं योगभक्ति का उल्लेख आया है, और अन्त में यह भी कहा गया है कि योगभक्ति करके ही ऋषभादि जिनेन्द्र निर्वाण-सुख को प्राप्त हुए ( गा० १४० ) । इस प्रसंगानुसार कुंदकुंद द्वारा स्वयं पृथक् रूप से भक्तियां लिखा जाना भी सार्थक प्रतीत होता है । कुरंदकुद कृत उपलभ्य दशभक्तियों के नाम ये हैं : -- तीर्थकर भक्ति ( गा० ८ ), सिद्धभक्ति ( गा० ११), श्रुतभक्ति (गा. ११), चारित्रभक्ति ( गा० १२), अनगारभक्ति (गा० २३). आचार्य भक्ति ( गा० १० ), निर्वाणभक्ति (गा० २७), पंचपरमेष्ठिभक्ति (गा० ७) नंदीश्वरभक्ति और शान्ति भक्ति । ये भक्तियाँ उनके नामानुसार वन्दनात्मक व भावनात्मक हैं । सिद्धभक्ति की गाथा - संख्या कुछ अनिश्चित है । अन्तिम दो अर्थात् नंदीश्वरभक्ति और शांतिभक्ति जिस रूप में मिलती हैं, उसमें केवल अन्तिम कुछ वाक्य प्राकृत में है । उनका पूर्ण प्राकृत पाठ अप्राप्य है । इनकी प्राचीन प्रतियां एकत्र कर संशोधन किये जाने की आवश्यकता है । ये भक्तियाँ प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत टीका सहित 'क्रियाकलाप' नाम से प्रकाशित हुई हैं । ( प्र० शोलापुर १६२१) ।
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