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चरणानुयोग-मुनिधर्म
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गाथाओं द्वारा श्रमण के लक्षण, प्रवज्या तथा उपस्थापनात्मक दीक्षा, अट्ठाईस मूलगुणों का निर्देश, छेद का स्वरूप, उत्सर्ग व अपवाद मार्ग का निरूपण, ज्ञानसाधना, शुभोपयोग, संयमविरोधी प्रवृत्तियों का निषेध तथा श्रामण्य की पूर्णता द्वारा मोक्ष तत्व की साधना का प्ररूपण कर अन्तिम गाथा में यह कहते हुए ग्रन्थ समाप्त किया गया है कि जो कोई सागार या अनगार आचार से युक्त होता हुआ इस शासन को समझ जाय, वह अल्पकाल में प्रवचन के सार को प्राप्त कर लेता है।
नियमसार में १८७ गाथाएं हैं। लेखक ने आदि में स्पष्ट किया है कि जो नियम से किया जाय, वही नियम है और वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप है। 'सार' शब्द से उनका तात्पर्य है कि उक्त नियम से विपरीत बातों का परिहार किया जाय । तत्पश्चात् ग्रन्थ में उक्त तीनों के स्वरूप का विवेचन किया है। गाथा ७७ से १५७ तक ८१ गाथाओं में आवश्यकों का स्वरूप विस्तार से समझाया है, जिसे उन्होंने मुनियों का निश्चययात्मक चारित्र कहा है। यहाँ षडावश्यकों का क्रम एवं उनके नाम अन्यत्र से कुछ भिन्न हैं । जिन आवश्यकों का यहाँ वर्णन हुआ है, वे हैं-प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान' आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परमभक्ति । उन्होंने कहा है-प्रतिक्रमण उसे कहते हैं जिसका जिनवर-निर्दिष्ट सूत्रों में वर्णन है (गाथा ८९) और उसका स्वरूप वही है जो प्रतिक्रमण नामके सूत्र में कहा गया है (गाथा ६४)। यहां प्रावश्यक नियुक्ति का स्वरूप भी समझाया गया है । जो अपने वश अर्थात् स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है वह अवश, और अवश करने योग्य कार्य आयश्यक है। युक्ति का अर्थ है उपाय, वही निरवयव अर्थात् समष्टि रूप से नियुक्ति कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि लेखक के सम्मुख एक आवश्यक नियुक्ति नाम की रचना की थी और वे उसे प्रामाणिक मानते थे (गाथा १४२)। आवश्यक द्वारा ही श्रामण्य गुण की पूर्ति होती है। अतएव जो श्रमण आवश्यक से हीन है, वह चारित्रभ्रष्ट होता है (१४७-४८) । आवश्यक करके ही पुराण पुरुष केवली हुए हैं (गाथा १५७) । इस प्रकार ग्रन्थ का बहुभाग आवश्यकों के महत्व और उनके स्वरूप विषयक है। आगे की १०, १२ गोथाओं में केवली के ज्ञानदर्शन तथा इनके क्रमशः पर-प्रकाशकत्व और स्व-प्रकाशकस्व के विषय में आचार्य ने अपने आलोचनात्मक विचार प्रकट किये हैं । यह प्रकरण षट्खंडागम की धवला टीका में ज्ञान और दर्शन के विवेचन विषयक प्रकरण से मिलान करने योग्य है । अंत में मोक्ष के स्वरूप पर कुछ विचार प्रकट कर नियमसार की रचना निजभावना निमित्त की गई है, ऐसा कह कर ग्रन्थ समाप्त किया गया है । इस
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