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जैन साहित्य
राग-द्वेष रूपी पवन के झकोरों से रहित ध्यान रूपी प्रदीप उसीप्रकार स्थिरता से प्रज्वलित होता है जिस प्रकार गर्भगृह में द्वीपक ( गा० १२३) । जिस प्रकार बीज दग्ध हो जाने पर उसमें फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसीप्रकार भावश्रमण के कर्मब्रीज दग्ध हो जाने पर भव (पुनर्जन्स) रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता, इत्यादि । इस पाहुड के अवलोकन से प्रतीत होता है कि कुर्ता के समय में साधु लोग बाह्य वेश तथा जप, तप, व्रत आदि बाह्य क्रियाओं में अधिक रत रहते थे, और यथार्थ श्राभ्यन्तर शुद्धि की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं देते थे । इसी बाह्याडम्बर से भावशुद्धि की और साधुओं की चित्तवृत्तियों को मोड़ने के लियेयह पाहुड लिखा गया । इसी अभिप्राय से उनका अगला लिंग पाहुड भी लिखा गया है ।
संचय करता है,
लिगपाहुड : ( गा० २२) में मुनियों की कुछ ऐसी प्रवृत्तियों की निंदा की गई है जिनसे उनका श्रमणत्व सधता नहीं, किन्तु दूषित होता है । कोई श्रमण नाचता, गाता व बाजा बजाता है ( गा० ४ ) ! कोई रखता है व आर्तध्यान में पड़ता है ( गा० ५ ) । कोई कलह, वाद व द्यूत में अनुरक्त होता है ( गा० ६) । कोई विवाह जोड़ता है और कृषिकर्म व वाणिज्य द्वारा जीवघात करता है ( गा० ) । कोई चोरों लम्पटों के वाद-विवाद में पड़ता है व चोपड़ खेलता है ( गा० १० ) । कोई भोजन में रस का लोलुपी होता व काम-क्रीड़ा में प्रवृत्त होता है गा० १२ ) । कोई बिना दी हुई वस्तुओं को ले लेता है ( गा० १४ ) कोई ईयापथ समिति का उल्लंघन कर कूदता है, गिरता है, दौड़ता है ( गा० १५) । कोई शस्य (फसल) काटता है, वृक्ष का छेदन करता है या भूमि खोदता है ( गा० १६) । कोई महिला वर्ग को रिझाता है, कोई प्रवृज्याहीन गृहस्थ अथवा अपने शिष्य के प्रति बहुत स्नेह प्रकट करता है ( गा० १८) । ऐसा श्रमण बड़ा ज्ञानी भी हो तो भी भाव - विनष्ट होने के कारण श्रमण नहीं है, और मरने पर स्वर्ग का अधिकारी न होकर नरक व तिर्यच योनि में पड़ता है । ऐसे भाव - विनष्ट श्रमण को पासत्थ ( पार्श्वस्थ ) से भी निकृष्ट कहा है ( गा० २० ) । अन्त में भावपाहुड के समान इस लिंग पाहुड को सम्बं बुद्ध (सर्वज्ञ) द्वारा उपदिष्ट कहा है । जान पड़ता है कर्ता के काल में मुनि सम्प्रदाय में उक्त दोष बहुलता से दृष्टिगोचर होने लगे थे, जिससे कर्ता को इस रचना द्वारा मुनियों को उनकी और से सचेत करने की आवश्यकता हुई ।
शीलपाहुड : ( गा० ४४) भी एक प्रकार से भाव और लिंग पाहुडों के विषय का ही पूरक है । यहां धर्मसाधना में शील के ऊपर बहुत अधिक जोर दिया गया है, जिसके बिना ज्ञानकी प्राप्ति भी निष्फल है । यहां सच्चइपुत ( सात्यकिपुत्र)
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