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________________ क रणानुयोग ६३ अठारवीं शताब्दी में आचार्य यशोविजय हुए, जिन्होंने जैनन्याय और सिद्धान्त को अपनी रचनाओं द्वारा खूब परिपुष्ट किया। न्याय की दृष्टि से उनकी 'अनेकान्त-व्यवस्था', 'जैन तर्कभाषा', 'सप्तभंगी-नय-प्रदीप', 'नयप्रदीप' 'नयोपदेश','नयरहस्य' व ज्ञानसार-प्रकरण, 'अनेकान्त-प्रवेश', अनेकान्त-व्यवस्था व वाद माला आदि उल्लेखनीय हैं। तर्कभाषा में उन्होंने अकलंक के लघीयस्त्रय तथा प्रणाम-संग्रह के अनुसार प्रमाण नय और निक्षेप, इन तीन विषयों का प्रतिपादन किया है । बौद्ध परम्परा में मोक्षाकार कृत तर्कभाषा (१२ वीं शती) और वैदिक परम्परा में केशव मिश्र कृत तर्कभाषा (१३ वी १४ वीं शती) के अनुसरण पर ही इस ग्रन्थ का नाम 'जैन तर्क भाषा चुना गया लगता है। उन्होंने ज्ञानबिन्दु, न्यायखण्डखाद्य तथा न्यायालोक को नव्य शैली में लिखकर जैन न्याय के अध्ययन को नया मोड़ दिया। ज्ञानबिंदु में उन्होंने प्राचीन मतिज्ञान के व्यंजनावग्रह को कारणांश, अर्थावग्रह और ईहा को व्यापरांश, अवाय को फलांश और धारणा को परिपाकांश कहकर जैन परिभाषाओं की न्याय आदि दर्शनों में निर्दिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान की पक्रियाओं से संगति बैठाकर दिखलाई है। करणानुयोग साहित्य उपर्युक्त विभागानुसार द्रव्यानुयोग के पश्चात् जैन साहित्य का दूसरा विषय है करणानुयोग । इसमें उन ग्रन्थों का समावेश होता है जिनमें ऊर्व, मध्य व अधोलोकों का, द्वीपसागरों का, क्षेत्रों, पर्वतों व नदियों आदि का स्वरूप व परिमाण विस्तार से, एवं गणित की प्रक्रियाओं के आधार से, वर्णन किया गया है । ऐसी अनेक रचनाओं का उल्लेख ऊपर वर्णित जैन आगम के भीतर किया जा चुका है, जैसे सूर्यप्रज्ञप्ति,चन्द्रप्रज्ञप्ति जम्बूद्विप-प्रज्ञप्ति और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति । इन प्रज्ञप्तियों में समस्त विश्व को दो भागों में बांटा गया है-- लोकाकाश व अलोकाकाश । अलोकाकाश विश्व का वह अनन्त भाग है जहां आकाश के सिवाय अन्य कोई जड़ या चेतन द्रव्य नहीं पाये जाते । केवल लोकाकाश ही विश्व का वह भाग है जिसमें जीव, और पुद्गल तथा इनके गमनागमन में सहायक धर्म और अधर्म द्रव्य तथा द्रव्य परिवर्तन में निमित्तभूत काल ये पांच द्रव्य भी पाये जाते हैं। इस द्रव्यलोक के तीन विभाग हैं-ऊर्ध्व, मध्य, और अधोलोक । मध्यलोक में हमारी वह पृथ्वी है, जिसपर हम निवास करते हैं यह पृथ्वी गोलाकार असंख्य द्वीप-सागरों में विभाजित है। इसका मध्य में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है, जिसे वलयाकार वेष्टित किये हुए दो लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है। लवणसमुद्र को चार लाख योजन विस्तार वाला धातकी खंड द्वीप वेष्टित किये हुए है, और उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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