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________________ जैन साहित्य टिप्पणी सहित प्रकाशित हो चुका है (पाटन १९१२ । उनके अष्टप्रकरण नामक ग्रंथ में आठ आठ पद्यों के ३२ प्रकरण हैं जिममें आत्मनित्यवाद, क्षणिकवाद नित्यानित्य आदि विषयों का निरूपण पाया जाता है । इस पर जिनेश्वर सूरि (११ वीं शती) की टीका है । इस टीका में कुछ अंश प्राकृत के हैं जिनका संस्कृत रूपान्तर टीकाकार के शिष्य अभयदेव सूरि ने किया है। उनकी अन्य अन्य दार्शनिक रचनाएँ हैं : षट्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय (सटीक) धर्मसंग्रहणी, तत्वरंगिणी व परलोकसिद्धि आदि। धर्मसंग्रहणी में १९६५ गाथाओं द्वारा धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा प्ररूपण किया गया है। प्रसंगवश इसमें चार्वाक मत का खण्डन भी आया है । इस पर मलयगिरि कृत संस्कृत टीका उपलब्ध है । उनकी योगविषयक योगबिंदु, योगदृष्टि-समुच्चय, योग-शतक, योगविशिका (विंशति विशिका में १७वीं विशिका) एवम् षोडशक (१५ वां, १६वां षोडशक) नामक रचनाएँ पातज्जल योग शास्त्र की तुलना में योग विषयक ज्ञान विस्तार की दृष्टि से अध्ययन करने योग्य हैं । अन्यमतों के विवेचन की दृष्टि से उनकी द्विज-वदन-चपेटा नामक रचना उल्लेखनीय है । विशेष ध्याम देने योग्य बात यह है कि उन्होंने बौद्धाचार्य दिङ्नाग (५वीं शती) के न्यायप्रवेश पर अपनी टीका लिखकर एक तो मूल ग्रन्थ के विषय को बड़े विशदरूप में सुस्पष्ट किया और दूसरे उसके द्वारा जैन सम्प्रदाय में बौद्ध न्याय के अध्ययन की परम्परा चला दी । आगामी काल की रचनाओं में वादिदेव सूरि (१२ वीं शती) कृत प्रमाणनयतात्वालोकाल कार, स्यावाद रत्नाकर, हेमचन्द्र (१२ वीं शती) कृत प्रमाण-मीमांसा व अन्ययोगव्यवच्छेदिका और वेदांकुश रत्नप्रभसूरि (१३ वीं शती) कृत स्याद्वाद-रत्नाकरावतरिका, जयसिंह सूरि (१५ वीं शती) कृत न्यायसार-दीपिका, शुभ विजय (१७ वीं शती) कृत स्याद्वादमाला, विनय विजय (१७ वीं शती) कृत नयकणिका उल्लेखनीय हैं। समन्तभद्र कृत युवत्नुशासन के परिचय में कहा जा चुका है कि उस ग्रन्थ के टीकाकार विद्यानंदि ने आप्तमीमांसा को 'अन्ययोगव्यवच्छेदक' कहा है, और तदनुसार हेमचंद्र ने अपनी अन्ययोगव्यवच्छेदिका और अयोगव्यवच्छेद ये दो द्वात्रिशिकाएँ लिखीं । अन्ययोग-व्यच्छेदिका पर मल्लिषेण सूरि ने एक सुविस्तृत टीका लिखी जिसका नाम स्याद्वादमंजरी है, और जिसे उन्होंने अपनी प्रशस्ति के अनुसार जिनप्रभसूरि की सहायता से शक सं० १२१४(ई०१२९२) में समाप्त किया था। इसमें न्याय, वैशेषिक पूर्व मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध व चार्वाक मतों का परिचय और उनपर टीकाकार के समालोचनात्मक विचार प्राप्त होते हैं । इम कारण यह ग्रन्थ जैन दर्शन के उक्त दर्शनों से तुलनात्मक अध्ययन के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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