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न्याय
वश्यक भाष्य में प्रथम बार परोक्ष के स्थान पर 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' की संज्ञा प्रदान की। इसी आधार पर पीछे के न्याय ग्रन्थों में प्रमाण को प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, इन तीन तथा उपमान को मिलाकर चार भेदों में विभाजित कर ऊहापोह की जाने लगी। न्यायावतार में कुल ३२ कारिकाएं हैं, जिनके द्वारा उपयुक्त तीन प्रमाणों का संक्षेप से प्रतिपादन किया गया है। इसी विषय का विस्तार न्यायावतार की हरिभद्र सूरि (८वीं शती) कृत वृत्ति, सिद्धर्षि गणि (१०वीं शती) कृत टीका, एवं देवभद्र सूरि (१२ वीं शती) कृत टिप्पणों में किया गया है । शान्तिसूरि (११वीं शती) ने न्यायावतार की प्रथम कारिका पर सटीक पद्यबंध वात्तिक रचा है । इसी प्रथम कारिका पर जिनेश्वर सूरि (११वीं शती) ने अपना पद्यबंध प्रमालक्षण नामक ग्रन्थ लिखा, और स्वयं उसपर व्याख्या भी लिखी। __ जैन न्याय को अकलंक की देन बड़ी महत्वपूर्ण है। अनेक शिलालेखों व प्रशस्तियों के आधार से अकलंक का समय ई० की आठवीं शती का उत्तरार्द्ध विशेषतः ई० ७२०-७८० सिद्ध हो चुका है। इनकी तत्त्वार्थसूत्र तथा आप्तमीमांसा पर लिखी हुई टीकाओं का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। उन रचनाओं में हमें एक बड़े नैयायिक की तर्क शैली के स्पष्ट दर्शन होते हैं। अकलंक की न्यायविषयक चार कृतियां प्राप्त हुई हैं - प्रथम कृति लघीयस्त्रय में प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश तथा प्रवचन-प्रवेश नाम के तीन प्रकरण हैं, जो प्रथमतः स्वतंत्र ग्रन्थ थे, और पीछे एकत्र ग्रथित होकर लघीयस्त्रयनाम से प्रसिद्ध हो गये। प्रमाण, नय और निरक्षेप इन तीनों का ताकिक शैली से एकत्र प्ररूपण करने वाला यही सर्वप्रथम ग्रन्थ सिद्ध होता है इस ग्रन्थ में उन्होंने प्रत्यक्ष का स्वतंत्र लक्षण स्थिर किया (१, ३), तार्किक कसौटी द्वारा क्षणिकवाद का खंडन किया (२,१), तर्क का विषय, स्वरूप, उपयोग आदि स्थिर किया; इत्यादि । इसपर स्वयं कर्ता की विवृत्ति नामक टीका मिलती है। इसी पर प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रयाल कार नामकी वह विशाल टीका लिखी जो 'न्यायकुमुवचन्द्र' नाम से प्रसिद्ध है, और जैन न्याय का एक बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इनका काल ई० की ग्यारहवीं शती है । अकलंक की दूसरी रचना 'न्यायविनिश्चय' है, और उसपर भी लेखक ने स्वयं एक वृत्ति लिखी थी। मूल रचना की कोई स्वतंत्र प्रति प्राप्त नहीं हो सकी, किन्तु उसका उद्धार उनकी वादिराजसूरि (१३वों शती) द्वारा रचित विवरण नाम की टीका पर से किया गया है । इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन नाम के तीन प्रस्ताव हैं, जिनकी तुलना सिद्धसेन द्वारा न्यायावतार में स्थापित प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुत; तथा बौद्ध ग्रन्थकार धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और
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