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________________ न्याय परार्थानुमान से करने योग्य है । तीसरी रचना 'सिद्धिविनिश्चय' में प्रत्यक्षसिद्धि, सविकल्प सिद्धि, प्रमाणन्तर सिद्धि व जीवसिद्धि आदि बारह प्रस्तावों द्वारा प्रमाण, नय और निक्षेप का विवेचन किया गया है। इस पर अनंतवीर्यकृत (११वीं शती) विशाल टीका है । इनका चौथा ग्रन्थ 'प्रमाण-संग्रह' है, जिसकी ८७.८८ कारिकाएं नौ प्रस्तावों में विभाजित है। इसपर कर्ता द्वारा स्वरचित वृत्ति भी है, जो गद्य मिश्रित शैली में लिखी गई है। इसमें प्रत्यक्ष अनुमान आदि का स्वरूप, हेतुओं और हेत्वाभासों का निरूपण, वाद के लक्षण, प्रवचन के लक्षण, सप्तभंगी और नैगमादि सात नयों का कथन, एवं प्रमाण, नय और निक्षेप का निरूपण बड़ी प्रौढ़ और गंभीर शैली में किया गया है, जिससे अनुमान होता है कि यही अकलंक की अन्तिम रचना होगी । इसपर अनन्तवीर्य कृत प्रमाणसंग्रह भाष्य, अपर नाम 'प्रमाणसंग्रह-अलंकार टीका' उपलभ्य है। इन रचनाओं द्वारा अकलंक ने जैन न्याय को खूब परिपुष्ट किया है, और उसे उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कराई है । ___ अकलंक के अनन्तर जैन न्याय विषयक साहित्य को विशेष रूप से परिपुष्ट करने का श्रेय आचार्य विद्यानंदि को है, जिनका समय ई० ७७५ से ८४० तक सिद्ध होता है। उनकी रचनाएं दो प्रकार की पाई जाती हैं, एक तो उनसे पूर्वकाल की विशेष सैद्धान्तिक कृतियों की टीकाएं, और दूसरे अपनी स्वतंत्र कृतियां । उनकी उमास्वाति कृत त० सूत्र पर श्लोक वार्तिक नामक टीका, समन्तभद्र कृत युक्त्यनुशासन की टीका और आप्तमीमांसा पर अष्टसहस्त्री टीका के उल्लेख यथास्थान किये जा चुके हैं । इन टीकाओं में भी उनकी सैद्धाप्रतिभा एवं न्याय की तक शैली के दर्शन पद-पद पर होते हैं। उनकी न्याय विषयक स्वतंत्र कृतियां हैं-आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और सत्यशासन-परीक्षा । आप्त-परीक्षा सर्वार्थसिद्धि के 'मोक्षमार्गस्थ नेतारं' आदि प्रथम श्लोक के भाष्य रूप लिखी गई है। विद्या-नंदि ने अपने प्रमाण-परीक्षादि ग्रन्थों में उस वर्णनशैली को अपनाया है, जिसके अनुसार प्रतिपादन अन्य ग्रन्थ की व्याख्या रूप से नहीं, किन्तु विषय का स्वतंत्र धारावाही रूप से किया जाता है। इन सब ग्रन्थों में कर्ता ने अकसंक के न्याय को और भी अधिक परिमार्जित करके चमकाया है । उनकी एक और रचना 'विद्यानंद-महोवय' का उल्लेख स्वयं उनके तत्वार्थश्लोकवार्तिक में, तथा वादिदेव सूरि के 'स्याद्वाद-रत्नाकर' में मिलता है, किन्तु वह अभी तक प्रकाश में नहीं आ सकी है। विद्यानंदि के पश्चात् विशेष उल्लेखनीय नैयायिक अनंतकीति (१० वीं शती) और माणिक्यनंदि (११वीं शती) पाये जाते हैं। अनन्त कीर्ति की दो रचनाएँ 'वृहत् सर्वसिद्धि' और 'लघुसर्वशसिद्धि' प्रकाश में आ चुकी हैं । माणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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