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न्याय
(११४ श्लोक) और युक्त्यनुशासन, (६४ श्लोक), ये दोनों रचनाएं प्राप्त हैं। आप्तमीमांसा को देवागम स्तोत्र भी कहा गया है । ये दोनों कृतियां स्तुतियों के रूप में रची गई हैं, और उनमें विषय की ऊहापोह एवं खंडन-मंडन स्याद्वाद की सप्तभंगी व नयों के आश्रय से किया गया है; और उन में विशेष रूप से एकांतवाद का खंडन कर अनेकान्तवाद की पुष्टि की गई है। इसी अनेकान्तवाद के आधार पर युक्त्यनुशासन में महावीर के शासन को सर्वोदय तीर्थ कहा गया है । इस रचना का दिग० सम्प्रदाय में बड़ा आदर हुआ है, और उसपर विशाल टीका साहित्य पाया जाता है । सबसे प्राचीन टीका भट्टाकलंककृत अष्टशती है, जिसे आत्मसात करते हुए विद्यानंदि आचार्य ने अपनी अष्टसहस्त्री नामक टीका लिखी है। इस टीका के प्राप्तमीमांसालंकृति व देवागमालंकृति नाम भी पाये जाते हैं । अन्य कुछ टीकाएं वसुनंदि कृत देवागम-वृत्ति (१० वीं शती) तथा लघु समंतभद्र कृत अष्टसहस्त्रीविषमपद-तात्पर्यटीका (१३ वीं शती) नामकी हैं। एक टिपण्ण उपाध्याय यशोविजय कृत भी उपलभ्य हैं । युक्त्यनुशासन पर विद्यानंदि आचार्य कृत टीका पाई जाती है। इस टीका की प्रस्तावना में कहा गया है कि समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में 'अन्ययोग-व्यवच्छेद' द्वारा तीर्थंकर भगवान् को व्यवस्थापित किया, और फिर युक्त्यनुशासन की रचना की। इसके द्वारा हमें उक्त दोनों ग्रन्थों के रचना-क्रम की सूचना मिलती है। विद्यानंदी ने यहाँ जो 'अन्ययोग-व्यवच्छेद' पद आप्तमीमांसा के सम्बन्ध में प्रयोग किया है, उसका आगे बड़ा प्रभाव पड़ा, और हेमचन्द्र ने अपनी एक स्तुति रूप रचना का यही नाम रक्खा, जिस पर मल्लिषेण ने स्याद्वाद मंजरी टीका लिखी। अपनी एक दूसरी स्तुति-रूप रचना को हेमचन्द्र ने अयोगव्यवच्छेदिका नाम दिया है । समंतभद्र कृत अन्य दो ग्रन्थों अर्थात् जीव-सिद्धि और तत्वानुशासन के नामों का उल्लेख मिलता है, किन्तु ये रचनायें अभी तक प्रकाश में नहीं आई।
संस्कृत में जैन न्याय विषयक संक्षिप्ततम रचना सिद्धसेन कृत न्यायावतार उपलब्ध होती है, जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाण-भेदों के प्रतिपादन द्वारा जैन न्याय को एक नया मोड़ दिया गया है। इससे पूर्व प्रमाण के मति, श्रत, अवधि, मन: पर्यय और केवल, पाँच ज्ञानभेद किये जाते थे, जिनमें प्रथम दो परोक्ष और शेष तीन प्रत्यक्ष माने जाते थे। इसके अनुसार इन्द्रिय-जन्य समस्त ज्ञान परोक्ष माना जाता था। किन्तु वैदिक व बौद्ध परम्परा के न्याय शास्त्रों में इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न हुए ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ही मानकर चला गया है । इस ज्ञान को सम्भवत: जिनभद्रगणि ने अपने विशेषा
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