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भूमिका
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तो वैद्य व्रण में से शल्य निकालकर दर्द नहीं हो, इसके लिये थोड़ा खून निकालते हैं तथा शल्योद्धार करके व्रण जल्दी ठीक हो जाय इसके लिये चिकित्साशास्त्र के अनुसार पथ्य, भोजन और ओषधि दे करके व्रण को सुखाते हैं। यहाँ प्रायश्चित्त के प्रसङ्ग में भावव्रण को भी उसकी चिकित्सा-विधि सहित जानना योग्य है। भावव्रण को अध्यात्म के रहस्य के ज्ञाता योगियों की सूक्ष्म बुद्धि से ही अच्छी तरह जाना जा सकता है । प्रायश्चित्त के दस प्रकारों में से सात को उपर्युक्त व्रण का दृष्टान्त देकर समझाया गया है। मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक प्रायश्चित्त योग्य अपराधों में सम्यक् चारित्र के अभाव के कारण व्रण के दृष्टान्त की विचारणा नहीं की गयी है, क्योंकि मूल आदि तीनों प्रायश्चित्तों के योग्य अपराध सम्यक् चारित्र का सर्वथा अभाव होने पर ही होते हैं। संकल्पपूर्वक किये गए महाव्रतों के भंग रूपी अपराधों में चारित्रधर्म का अभाव हो जाने से उस साधु में महाव्रतों की पुनः स्थापना करना 'मूल' प्रायश्चित है। दुष्ट-अध्यवसायों से किये गए अपराधों का जब तक उचित तप से शुद्धिकरण न हो तब तक उसे महाव्रत न देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्वरूप को लेकर आचार्यों में मतभेद हैं। कुछ आचार्यों का मानना है कि जो जीव संघभेद, चैत्यभेद एवं जिन प्रवचन का उपघात करने से इस भव में और अन्य भवों में चारित्र के अयोग्य होते हैं, वे पाराञ्चिक कहलाते हैं। उनका यह मानना उचित भी हो सकता है, क्योंकि परिणामों की विचित्रता के कारण मोहनीय आदि कर्मों का निरूपक्रम बन्ध होने से इस भव में और अन्य भवों में चारित्र की प्राप्ति की अयोग्यता हो सकती है, इसलिये अन्य आचार्यों का मत भी असंगत नहीं है।
आगम में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत - ऐसी पाँच प्रकार के प्रायश्चित्त देने का विधि बतलायी गयी है। इन पाँच प्रकार के व्यवहारों के आधार पर अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि आगमोक्त भिक्षाचर्या आदि अनुष्ठान निर्दोष होते हैं और सदोष अनुष्ठान में ही प्रायश्चित्त होता है, निर्दोष अनुष्ठान में नहीं। तब फिर आगमोक्त, शुद्धचर्या करने वाले साधु के लिये भी आगम में प्रतिदिन आलोचनादि प्रायश्चित्त करने का विधान क्यों किया गया ? यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि आगमोक्त अनुष्ठान का प्रायश्चित्त नहीं किया जाता है, अपितु उस अनुष्ठान को करते समय जो सूक्ष्य विराधना होती है, उसकी शुद्धि के लिये आलोचनादि प्रायश्चित्त किये जाते हैं । सामान्यतया सभी जीव आयुष्य के अतिरिक्त अन्य सात प्रकार के कर्मों का सतत बन्ध करते रहते हैं। आयुष्य कर्म का बंध एक भव में एक ही बार होता है। दसवें सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान को प्राप्त जीव मोहनीय और आयुष्य कर्म के अतिरिक्त अन्य छः प्रकार के कर्मों का बन्ध करते हैं।
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