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________________ xciv भूमिका जन्म-मरण का कारण होने से अनिष्टकारक होता है। शल्यसहित मरकर जीव संसाररूपी घोर अरण्य (जंगल) में प्रवेश करते हैं और उसमें दीर्घकाल तक भटकते हैं। तीनों लोकों के मित्र जिनेन्द्रदेव ने इस आलोचना को भावारोग्य (भावों की शुद्धता) के रूप फल देने वाली कहा है । अत: मैं निदानरहित होकर भयंकर फलदायी सम्पूर्ण भावशल्य को गुरु के समक्ष विधिपूर्वक प्रकट करके दूर करूँगा - ऐसे भाव मन में उत्पन्न करना चाहिये । जिस प्रकार बालक अपनी माता के समक्ष बोलते हुए कार्य-अकार्य को छिपाए बिना जैसा होता है, वैसा कह देता है, उसी प्रकार साधु को माया और मद से मुक्त होकर अपने अपराध को यथातथ्य गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए और गुरु ने अपराध की शुद्धि हेतु जो दण्ड दिया है उसे यथावत् स्वीकार करना चाहिये । जिन दोषों को किया हो, उन दोषों को फिर से न करना ही सम्यक् आलोचना होती है। इसलिये मनुष्यत्व प्राप्त करके और दुष्कृत्यों के कारणभूत मनोभावों का त्याग करके मुमुक्षुओं को निरन्तर आत्मविशुद्धि का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि निर्वाणरूप सुख अर्थात् भवविरह का यही एकमात्र उपाय है। षोडश पञ्चाशक सोलहवें पञ्चाशक में 'प्रायश्चित्तविधि' का विवेचन किया गया है। सामान्यतया जिससे प्राय: चित्त-शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। लेकिन प्राकृतभाषा में इसका पायच्छित्त रूप बनता है, अर्थात् जिससे पाप का छेदन होता है वह पायच्छित्त कहलाता है। प्रायश्चित्त के आलोचना प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पाराश्चिक - ये दस प्रकार बताए गए हैं। भावपूर्वक किया गया प्रायश्चित्त ही यथार्थ होता है। भव्य, आगमों में श्रद्धावान् और संविग्न जीवों का प्रायश्चित्त भाव प्रायश्चित्त होता है और इससे भिन्न शेष जीवों का प्रायश्चित्त केवल द्रव्य प्रायश्चित्त होता है। भावरहित होने के कारण वह शुद्धि नहीं करने वाला होता है। आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग नियुक्ति रूप शास्त्र में द्रव्य व्रण के दृष्टान्त से चारित्राचार रूप भावव्रण की चिकित्सा का एक रूपक प्रस्तुत किया है। कहा है - शरीर में तद्भव और आगन्तुक ये दो प्रकार के व्रण होते हैं जिनमें आगन्तुक व्रण का शल्योद्धरण किया जाता है, तद्भव व्रण का नहीं। जो शल्य पतला हो अधिक गहरा न हो उसे बाहर खींच लिया जाता है। उस स्थान का मर्दन भी नहीं किया जाता है । जो शल्य शरीर में प्रथम प्रकार के शल्य से थोड़ा अधिक चुभा हो, किन्तु अधिक गहरा न हो ऐसे शल्य में शल्योद्धार, व्रणमर्दन और कर्णमलपूरण - ये तीन क्रियाएँ होती हैं किन्तु यदि शल्य अधिक गहरा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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