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________________ xcvi भूमिका उपशान्त मोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली – ये तीन गुणस्थान दो समय के बन्ध की स्थिति वाले हैं। इनमें मात्र सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। इनमें योगनिमित्तक बन्ध होता है, कषाय निमित्तक नहीं, क्योंकि कषायों का सर्वथा उदय नहीं होता। इसी प्रकार सातवें गुणस्थान में स्थित अप्रमत्तसंयत साधुओं को उत्कृष्ट से आठ मुहूर्त का और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की स्थिति का बन्ध होता है। वस्तुत: छद्मस्थ को सभी अवस्थाओं में कर्मबन्ध होता है, क्योंकि छद्मस्थ वीतरागी को भी मनोयोग आदि होते हैं। इसलिए उन्हें विराधना की शुद्धि करना आवश्यक है। अतः आलोचनादि प्रायश्चित्त सहित आगमोक्त अनुष्ठान कर कर्म के अनुबन्ध का छेदन करने वाले निर्दोष होते हैं। जिस दोष का प्रायश्चित्त किया गया हो, प्रायः उसे फिर से न किया जाये, अच्छी तरह से किये गए प्रायश्चित्त का लक्षण है । सप्तदश पञ्चाशक सत्रहवें पञ्चाशक में 'कल्पविधि' का वर्णन है । कल्प दो प्रकार के हैं - (१) स्थितकल्प और (२) अस्थितकल्प । स्थितकल्प वे हैं जो सदैव आचरणीय होते हैं। अस्थित कल्प किसी कारण से आचरणीय होते हैं और किसी से नहीं। सामान्यत: आचेलक्य आदि के भेद से कल्प के दस प्रकार होते हैं - १. आचेलक्य, २. औद्देशिक, ३. शय्यातरपिण्ड, ४. राजपिण्ड, ५. कृतिकर्म, ६. व्रत (महाव्रत), ७. ज्येष्ठ, ८. प्रतिक्रमण, ९. मासकल्प, १०. पर्युषणाकल्प । ये दस कल्प प्रथम और अन्तिम जिनों (तीर्थङ्करों) के शासन-काल के साधुओं के लिये स्थितकल्प होते हैं और मध्यवर्ती बाईस जिनों (तीर्थङ्करों) के साधुओं के लिये इनमें से छ: कल्प अस्थित होते हैं और चार कल्प स्थित होते हैं। आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मासकल्प और पर्युषणाकल्प - ये छ: मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिये अस्थित कल्प होते हैं तथा शेष चार कल्प मध्यकालीन जिनों के साधुओं के लिये भी स्थित ही होते हैं। स्थित कल्प का पालन अपरिहार्य होता है। अस्थित कल्प का पालन वैकल्पिक होता है। आचेलक्य आदि कल्प का स्वरूप निम्नलिखित है - आचेलक्य - आचेलक्य नग्नता को कहा जाता है, लेकिन वस्त्र न होने और अल्प वस्त्र होने, दोनों ही स्थिति आचेलक्य की स्थिति होती है। वस्त्र का न होना तो अचेलकता को स्पष्ट करता है लेकिन सवस्त्र भी निर्वस्त्र है, स्पष्ट नहीं होता है। जैसा कि इस पञ्चाशक में आया है, अल्पमूल्य के फटे कपड़ों के होने पर अचेल ही कहा जाता है। यह बात लोक-व्यवहार और आगम-न्याय - इन दोनों से सिद्ध होती है। लोक में जीर्ण वस्त्र को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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