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भूमिका
है। गीतार्थ साधु भी तभी एकाकी विहार करे, जब उसे कोई सहायक साधु न मिले । अगीतार्थ को तो सदा दूसरे के साथ ही विहार करना चाहिये।
मूलगुणों से युक्त गुरु ही गुरु है। ऐसे गुरु का त्याग नहीं करना चाहिये। कृतज्ञ शिष्य उनका सदैव सम्मान ही करते हैं, किन्तु जो कृतज्ञ नहीं होते हैं वे ही गुरु की अवहेलना करते हैं, वस्तुत: वे साधु नहीं हैं । जो गुरुकुल का त्याग करते हैं उनका सम्मान करना भी अहितकर है। तीर्थङ्कर की आज्ञा में रहने वाले साधु पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त, धर्म के प्रति अनुरागी, इन्द्रियों और कषायों के विजेता, गम्भीर, बुद्धिमान, प्रज्ञापनीय
और महासत्त्व वाले होते हैं। सम्यक् ज्ञान और दर्शन के होने पर ही सम्यक् चारित्र होता है। इसलिये जो सम्यक् चारित्र में स्थित हैं वे सम्यक् ज्ञान
और दर्शन में स्थित हैं । निश्चयनय की अपेक्षा से तो चारित्र का घात होने से ज्ञान और दर्शन का घात हो जाता है, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से उनका घात हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है । जो गुरुकुलवास रूपी गुण से युक्त हैं और जिसमें सुविहित साधु के वसति-शुद्धि, विहारशुद्धि, भाषा-शुद्धि, विनय-शुद्धि आदि लक्षण होते हैं, वही भावसाधु कहलाता है। भावसाधु राग-रहित, निरपेक्ष तथा इन्द्रियों को वश में रखने वाला होता है। इन गुणों से युक्त साधु ही अपने अच्छे आचरण से दूसरों में वैराग्य भावना उत्पन्न कर सकता है और स्वयं जल्दी ही शाश्वत सुख वाले मोक्ष को अर्थात् भव विरह को प्राप्त करता है। द्वादश पञ्चाशक
बारहवें पञ्चाशक में हरिभद्र ने 'साधुसामाचारीविधि' का वर्णन किया है। साधु सामाचारी का तात्पर्य है साधुओं को पालन करने योग्य आचारसम्बन्धी नियम । साधु सामाचारी दस प्रकार की हैं -- इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, निषीधिका, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, निमंत्रणा और उपसम्पदा । इन सामाचारियों का वर्णन निम्न प्रकार है -
इच्छाकार सामाचारी - अन्य साधुओं की इच्छापूर्वक उनसे अपना काम कराना या स्वयं उनका काम करना इच्छा सामाचारी है। इसमें तीन बातें प्रमुख हैं - (१) अनिच्छापूर्वक न तो दूसरों से काम कराना चाहिये
और न दूसरों का काम करना चाहिये, (२) अकारण न तो दूसरों से काम करवाना चाहिये और न दूसरों का काम करना चाहिये, (३) रत्नाधिक अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अपने से वरिष्ठ साधु से काम नहीं करवाना चाहिये । यदि स्वयं में कार्य करने की शक्ति हो तो दूसरों से वह कार्य न करवाकर दूसरों का कार्य स्वयं ही कर देना चाहिये । किन्तु यदि दूसरे का
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