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भूमिका
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कषायों के अत्यन्त सूक्ष्म होने पर सूक्ष्मसम्पराय चारित्र होता है। इसके विशुद्ध्यमान एवं क्लिश्यमान - ऐसे दो भेद हैं।
५. यथाख्यात - जैसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, तदनुरूप निरपवाद रूप से चारित्रधर्म का पालन यथाख्यात चारित्र है, अर्थात् कषायरहित चारित्र यथाख्यात चारित्र है।
- चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापनादि भेद वस्तुत: तो सामायिक के ही भेद हैं, अत: इस प्रसंग में हरिभद्र ने सामायिक एवं गुरुकुलवास का विशेष रूप से वर्णन किया है।
निर्जीव और सजीव सभी प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों में समभाव रखना सामायिक है। सामायिक अर्थात् समभाव के होने पर ही सम्यक् ज्ञान और दर्शन होते हैं। इसी समत्व की अनुभूति से सामायिक अर्थात् चारित्र में श्रद्धा होती है । साधुओं का गुरु के प्रति समर्पण भाव ही उनके ज्ञान और दर्शन का आधार है। प्रतिलेखन आदि शुभ अनुष्ठानों का पालन करना ही चारित्र धर्म का पालन है । आप्त की आज्ञा के पालन से ही चारित्र प्राप्त होता है - ऐसा आगमों में वर्णित है । जिनेन्द्रदेव की यह स्पष्ट आज्ञा है कि साधुओं को गुरुकुलवास अर्थात् गुरु के सान्निध्य का त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि गुरुकुलवास ही मोक्ष का साधन है। गुरुकुलवास का त्याग नहीं करने वाले साधु श्रुतज्ञान के पात्र बनते हैं। इससे उनका दर्शन और चारित्र भी दृढ़ होता है। शास्त्रज्ञ शिष्य को गुरु आचार्य बना देते हैं। क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य - ये दस साधु के धर्म हैं । इन धर्मों में पूर्णता गुरुकुलवास में रहने से ही आती है अन्यथा इनका अभाव हो जाता है। गुरु की सेवा करने से साधक सदनुष्ठानों में सहभागी होता है और कर्म की निर्जरा होती है। सम्यग्ज्ञान और सदनुष्ठान रूपी गुणों से युक्त गुरु ही सच्चा गुरु है। अत: सच्चे गुरु के आश्रय में ही सदा रहना चाहिये। अपने से अधिक या समान गुणों वाला सहायक न मिलने पर अकेले ही विहार करना चाहिये - यह आगमवचन विशिष्ट साधु की अपेक्षा से है, सर्वसामान्य के लिये नहीं है। जात और अजात के भेद से कल्प दो प्रकार का है। पुनः समाप्त और असमाप्त के भेद से भी कल्प दो-दो प्रकार के होते हैं । एकाकी विहार करने वाले साधु को अनेक दोष लगते हैं, यथा - स्त्री सम्बन्धी दोष, कुत्तों आदि के काटने का भय, साधु के प्रति द्वेष रखने वाले व्यक्तियों द्वारा आक्रमण, अशुद्ध भिक्षा आदि । इसीलिये जिनेन्द्रदेव ने एक गीतार्थ (विशिष्ट साधु) का दूसरे गीतार्थ की निश्रा में रहने वाले साधु का विहार प्रतिपादित किया
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