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भूमिका
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कार्य करने में असमर्थ हो तो उसे असमर्थता व्यक्त कर देनी चाहिये कि आपका कार्य करने की मेरी इच्छा तो है परन्तु मैं वह कार्य करने में असमर्थ हूँ। इस सामाचारी का पालन करने से पराश्रय की प्रवृत्ति समाप्त होती है, आत्मनिर्भरता में वृद्धि होती है, उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है और जैनशासन के प्रति लोगों में सम्मान का भाव बढ़ता है।
मिथ्याकार सामाचारी - महाव्रतों एवं समिति-गुप्ति के पालन में व्यक्ति से यदि कोई गलती हो गई हो तो 'यह गलत हुआ है', ऐसा सोचकर उसका पश्चात्ताप कर लेना चाहिये, इससे कर्मक्षय होते हैं।
तथाकार सामाचारी - कल्प्य और अकल्प्य का पूर्ण ज्ञान रखने वाले, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाले तथा संयम और तप से परिपूर्ण मुनियों के योग्य निर्देशों को बिना किसी शंका-कुशंका के स्वीकार कर लेना चाहिये।
आवश्यिकी सामाचारी - गुरु की आज्ञा लेकर ही मल-मूत्र निवृत्ति, भिक्षा एवं ज्ञानार्जन आदि के लिये बाहर जाना चाहिये । क्योकि साधु के लिये ज्ञानार्जन, ध्यान-साधना तथा भिक्षाटन आदि कार्य आवश्यक हैं। इन आवश्यक कार्यों के लिए गुरु की आज्ञापूर्वक उपाश्रय से बाहर जाना आवश्यिकी समाचारी है। इसमें उपाश्रय से बाहर जाते.समय 'आवस्सहिआवस्सहि' बोलना चाहिये।
निषीधिका सामाचारी - देव या गुरु के स्थान में प्रवेश करते समय अथवा आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करके लौटने पर 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करना ही नैषेधिकी है। इसका तात्पर्य है अशुभ कार्य करने या अनावश्यक रूप से बाहर जाने का निषेध है । गुरुदेव के स्थान का उपभोग सावधानी से करना चाहिये, जिससे उनकी किसी प्रकार की आशातना न हो । जो साधु सावधयोग से रहित होते हैं, उन्हीं की निषीधिका सामाचारी सफल होती है।
आपृच्छना सामाचारी - ज्ञानादि कार्य गुरु से पूछकर करना ही आपृच्छना सामाचारी है। गुरु से पूछकर किया गया कार्य सिद्ध होता है। इससे पापकर्मों का प्रणाश तथा पुण्यकर्मों का बन्ध होता है । आगामी भव में शुभ गति तथा सद्गुरु का लाभ होता है। इसलिये साधु को कोई भी कार्य गुरु की अनुमति लेकर ही करना चाहिये।
प्रतिपृच्छना सामाचारी - गुरु से पूछकर किये गए कार्य को सम्पन्न होने में कोई अन्तराल आ गया हो तो पुन: पूछकर कार्य करना प्रतिपृच्छना कहलाता है। पुनः पूछने पर गुरु दूसरा कार्य पहले करने को भी कह सकते
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