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भूमिका
प्राप्त नहीं होता है । अधिवासन के समय चन्दन, कपूर, पुष्प, नारियल आदि उत्तम द्रव्यों, वस्त्र, आभूषण आदि विविध प्रकार के उपहारों और भक्तिभावपरक उत्तम रचनाओं से जिनेन्द्रदेव के वैभव को प्रकट करके जिनबिम्ब की उत्कृष्ट पूजा करनी चाहिये । उत्कृष्ट पूजा (मूलमंगल) के पश्चात् चैत्यवन्दन करना चाहिये । वर्धमान स्तुति बोलने के पश्चात् शासनदेवियों की आराधना के लिये एकाग्रचित्त होकर कायोत्सर्ग करना चाहिये, फिर मंगलोच्चारणपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। जिनबिम्ब की यह प्रतिष्ठा सूर्य-चन्द्र की प्रतिष्ठा की ही भाँति शाश्वत है । प्रतिष्ठोपरान्त आशीर्वाद के लिये सिद्धों की स्तुति रूप उनकी अनेक उपमाओं वाली मंगलगाथाएँ बोलनी चाहिये । इन मंगलगाथाओं को बोलने से इष्ट की सिद्धि होती है । मंगलगाथाएँ बोली जाएँ इसे लेकर विद्वानों में मतवैभिन्य है । कुछ आचार्यों का कहना है कि ये मंगलगाथाएँ पूर्णकलश, मंगलदीप आदि रखते समय बोली जानी चाहिये तो कुछ आचार्यों का कथन है कि परमार्थ से जिनेन्द्रदेव ही मंगलरूप हैं, इसलिये प्रत्येक कार्य करने से पूर्व भावपूर्वक जिनेन्द्रदेव की स्तुतिरूप मंगलगाथाओं का पाठ करना चाहिये ।
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जिनबिम्ब की पूजा के उपरान्त संघ की पूजा करने का विधान है, क्योंकि शास्त्रों में ऐसा वर्णन आया है कि तीर्थङ्कर के बाद पूज्य के रूप में संघ का स्थान है । आगमों में तीर्थङ्कर द्वारा संघ को नमस्कार करने के उल्लेख मिलते हैं । संघपूजा में सभी पूज्यों की पूजा हो जाती है । यहाँ संघ का अभिप्राय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के समूह रूप संघ से नहीं है, अपितु उनके गुण समूह रूप संघ से है। यही कारण है कि तीर्थङ्कर भी देशना के पहले 'नमो तित्थस्स' कहकर गुरुभाव से संघ को नमस्कार करते हैं । इस तरह बिना किसी भेदभाव के गुणों के निधानरूप संघ की पूजा करनी चाहिये । संघ-पूजा सर्व दानों में महादान है। यही गृहस्थ धर्म का सार है और यही सम्पत्ति का सदुपयोग है। संघ - पूजा का मुख्य फल तो मोक्ष ही है, किन्तु उससे देव और मनुष्य शुभगतिरूप आनुषङ्गिक फल की प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के पश्चात् भी स्वजनों और सहधर्मियों के प्रति उत्तम वात्सल्यभाव रखना चाहिये । प्रतिष्ठा के अवसर पर शुद्धभाव से आठ दिनों तक महोत्सव करना चाहिये, किन्तु कुछ आचार्यों का कहना है कि यह महोत्सव तीन दिन तक करना चाहिये । तदुपरान्त प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि से चैत्यवन्दन, स्नात्र- पूजा आदि करनी चाहिये, जिससे भव- विरह अर्थात् संसार से मुक्ति प्राप्त हो ।
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