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________________ भूमिका नवम पञ्चाशक नवें पञ्चाशक में हरिभद्र ने 'यात्राविधि' का वर्णन किया है । यहाँ यात्रा से अभिप्राय मोक्षरूपी फल प्रदाता जिन की शोभायात्रा से है। जिन की शोभायात्रा वह महोत्सव है जो जिन को उद्दिष्ट करके किया जाता है। जिन की उपासना का आधार सम्यक् दर्शन है और निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहणा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना - ये आठ आचार ( भेद) बताए गए हैं। इनमें भी प्रभावना प्रधान है, क्योंकि जो निःशंकित आदि गुणों से युक्त है वही जिनशासन की प्रभावना कर सकता है । जिन - यात्रा जिनशासन की प्रभावना के निमित्त किया गया है जो एक विशिष्ट महोत्सव है । दान, तप, शरीर शोभा, उचित गीतवाद्य, स्तुति - स्तोत्र, प्रेक्षणक आदि इसके छः द्वार हैं, जिनका यथाशक्ति पालन करना चाहिये । जिनयात्रा सम्बन्धी इन छः क्रियाओं के लिये यह आवश्यक है कि इस हेतु सर्वप्रथम राजाज्ञा - प्राप्त की जाय, बिना राजा की आज्ञा के उसके प्रदेश में जिन की शोभायात्रा निकालना उचित नहीं है। राजा से उसके भूभाग में इनके करने हेतु अनुमति प्राप्त करना आगम सम्मत है । इससे उस देश में विचरण करने वाले साधुओं को निम्नांकित लाभ होते हैं Jain Education International (१) तीसरे महाव्रत का निरतिचार पालन होता है और जिनाज्ञा की आराधना होने से कर्मों की निर्जरा होती है, (२) इन कार्यों में शत्रु के उपद्रव आदि का भय नहीं रहता है, (३) राजा के द्वारा साधु का सम्मान होने से लोक में भी उस साधु का सम्मान होता है, अतः साधु को राजा के पास जाकर जैन शासन से अविरुद्ध उसके विनय, दाक्षिण्य और सज्जनता आदि गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये तथा कहना चाहिये हे श्रेष्ठ पुरुष ! मनुष्य के रूप में तो सभी मनुष्य समान होते हैं, फिर भी आपने विशिष्ट पुण्यकर्म से मनुष्यों के राजा बनने का सौभाग्य प्राप्त किया है। मनुष्य और देवलोक सम्बन्धी सभी सम्पदाओं की उपलब्धि का कारण धर्म है और धर्म ही संसाररूपी समुद्र को पार कराने वाला जहाज है । अतः आप धर्मकार्य में सहयोगी बनें । साधु के इस प्रकार के वचन से प्रभावित हो राजा उस महोत्सव के प्रसंग में या सर्वदा के लिये जीवहिंसादि का निवारण करता है । इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की यात्रा के अवसर पर राजाज्ञा से अथवा धनादि देकर भी हिंसादि कार्य रुकवाने का प्रयत्न करना चाहिये। संघ को राजा से मिलकर हिंसा बन्द करवाने वाले आचार्य या श्रावकों का अन्तःकरण से सम्मान करना चाहिये। उन महापुरुषों के सम्मान से गुणों की अनुमोदना होती है और हिंसा निवारणरूप विशेष भाव होने से कर्मक्षय होते हैं । - lxxxi -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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