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________________ भूमिका |xxi तक निरन्तर गुरु-आज्ञा के पालन का मनोभाव प्राप्त हो। इस प्रकार प्रार्थनागर्भित प्रणिधान तभी तक योग्य है जब तक भवनिर्वेद की प्राप्ति नहीं होती। भवनिर्वेदादि गुणों की उपलब्धि के बाद माँग करने को कुछ भी नहीं रह जाता है। यदि कोई जीव तीर्थङ्करों की समृद्धि देखकर या सुनकर उस समृद्धि को पाने की इच्छा से तीर्थङ्कर बनने की प्रार्थना करता है तो वह राग-युक्त है, क्योंकि उसमें उपकार करने की नहीं, अपितु समृद्धि प्राप्त करने की भावना होती है, जिससे तीर्थङ्करत्व के बजाय पापकर्म बंध होता है। किन्तु यह भी सच है कि लोकहित की भावना से तीर्थङ्कर बनने की इच्छा वाला जीव तीर्थङ्कर नामकर्म बाँधकर अनेक जीवों का हितकारी बनता है । इस दृष्टि से देखा जाय तो तीर्थङ्कर बनने की अभिलाषा अर्थापत्ति से धर्मदेशनादि. अनुष्ठान में प्रवृत्तिरूप है, इसलिये वह दोषरहित है। जहाँ तक पूजा करने में कथंचित् हिंसा की बात है तो यह जान लेना भी आवश्यक है कि गृहस्थों के लिये जिनपूजा निर्दोष है, क्योंकि गृहस्थ कृषि आदि असदारम्भ में प्रवृत्ति करते हैं जबकि जिनपूजा से वे उस असदारम्भ से निवृत्त होते हैं; अत: जिनपूजा निवृत्तिरूप फल है। यदि कोई यह सोचता है कि शरीर, घर, पुत्र, स्त्री आदि द्वारा जीव हिंसा में मेरी प्रवृत्ति है इसलिये मैं जिनपूजा नहीं करूँगा, तो यह उसकी मूर्खता है। मोक्षाभिलाषी को प्रमादरहित भाव से आगमसम्मत विधि द्वारा भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिये । जिस प्रकार महासमुद्र में फेंकी गयी जल की एक बूंद का भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जिनों के गुणरूपी समुद्र में पूजा अक्षय ही होती है। पूजा में पूज्य को कोई लाभ हो या न हो लेकिन पूजक को अवश्य होता है। जिस प्रकार अग्नि आदि के सेवन से अग्नि को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजा करने से भले ही जिनेन्द्रदेव को कोई लाभ न हो, पर उनकी पूजा करने वाले को लाभ अवश्य होता है, अत: जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिये। पूजा करने से देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के प्रति सम्मान जगता है; जिन, गणधर, चक्रवर्ती आदि उत्तम पदों की प्राप्ति होती है और उत्कृष्ट धर्म की प्रसिद्धि होती है। पञ्चम पञ्चाशक पञ्चम पञ्चाशक में 'प्रत्याख्यानविधि' का वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यान, नियम और चारित्रधर्म समानार्थक हैं। प्रत्याख्यान का अर्थ है - "आत्महित की दृष्टि से प्रतिकूल प्रवृत्ति के त्याग की मर्यादापूर्वक प्रतिज्ञा करना।" मूलगुण और उत्तरगुण के आधार पर इसके दो भेद होते हैं। साधु के महाव्रत और श्रावक के अणुव्रत मूलगुण प्रत्याख्यान हैं तथा पिण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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