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भूमिका
पूजा के लिये स्नान करने में थोड़ी हिंसा तो होती है, किन्तु पूजा के फलस्वरूप पुण्य बन्ध होने से लाभ ही होता है। पूजा के आरम्भ का त्याग करने वाले गृहस्थ को लोक में जिनशासन की निन्दा और अबोधि नामक दोष आते हैं। इसी प्रकार न्याय, नीति से रहित अशुद्ध जीविका के अर्जन से भी दोष लगते हैं । अत: द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि - दोनों प्रकारों की शुद्धिपूर्वक पूजा करने का विधान है। पूजा करने के लिये सुगन्धित पुष्प, धूप आदि सुगन्धित औषधियों तथा विभिन्न जलों (इक्षुरस, दूध, घी आदि) से जिनप्रतिमा को स्नान कराकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार पूजा करनी चाहिये। इहलौकिक और पारलौकिक कार्यों में पारलौकिक कार्य प्रधान होता है। जिनपूजा पारलौकिक कार्य है, अत: जिनपूजा में उत्तम साधनों अर्थात् द्रव्यों के उपयोग का सर्वोत्तम स्थान है। पूजा इतने आदर से करनी चाहिये कि चढ़ाई गयी पूजा की सामग्री देखने में सुन्दर लगे। जैसे - प्रत्येक वस्तु का उपयोग अच्छी तरह से करना, पूजन-सामग्री का दृश्य सुन्दर बनाना, पूजा के समय शरीर को न खुजलाना, नाक से श्लेष्म न निकालना विकथा न करना आदि । आदरपूर्वक एवं सारभूत-स्तुति तथा स्तोत्रसहित चैत्यवंदन करने से भगवान् का सम्मान होता है। पूजा करते समय स्तुतियों या स्तोत्रों के अर्थ का ज्ञान यदि है तो परिणाम शुभ होता है, लेकिन जिनको अर्थ का ज्ञान नहीं होता उनका भी रत्नज्ञानन्याय से परिणाम शुद्ध ही होता है। जिस प्रकार ज्वर आदि का शमन करने वाले रत्नों के गुण का ज्ञान रोगी को नहीं होता है, फिर भी रत्न उसके ज्वर को शान्त कर देता है उसी प्रकार भावरूपी रत्नों से युक्त स्तुति-स्तोत्र भी शुभभाव वाले होने के कारण उनके अर्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी कर्मरूपी ज्वर आदि रोगों को दूर कर देते हैं। अत: शुभभाव प्रधान स्तुति-स्तोत्रपूर्वक ही चैत्यवंदन करना श्रेयस्कर है। चैत्यवंदनोपरान्त प्रणिधान अर्थात् संकल्प करना चाहिये जिससे धर्मकार्य में प्रवृत्ति होती है, उसमें आने वाले विघ्नों पर विजय होती है और शुरू किये गए कार्य की निर्विघ्न सिद्धि सम्भव होती है। प्रणिधान को हम निदान नहीं कह सकते हैं, क्योंकि निदान में लौकिक उपलब्धियों की आकांक्षा होती है, जबकि प्रणिधान में मात्र आत्मविशुद्धि की इच्छा होती है। प्रणिधान (संकल्प) करने से ही नियमत: इष्ट कार्य की सिद्धि होती है। प्रणिधान से ही धार्मिक अनुष्ठान भावरूप बन जाते हैं। प्रणिधान की विधि कुछ इस प्रकार है - सिर से हाथों की अंजलि लगाकर आदरपूर्वक निम्न प्रणिधान करना चाहिये - हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! आपकी जय हो। हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद, मार्गानुसारिता, इष्टफलसिद्धि, लोक विरुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग, गुरुजन पूजा, परार्थकरण, सुगुरु की प्राप्ति हो और जब तक मोक्ष नहीं मिले तब
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