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भूमिका
मन्द बुद्धि वाले जीवों को होती है । तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना को लेकर विद्वानों में मत भिन्नता देखने को मिलती है। कुछ आचार्यों का कहना है कि तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना लौकिकी है तो कुछ आचार्यों का कहना है कि ये दोनों वन्दनाएँ जिनवन्दना हैं ही नहीं, क्योंकि इन वन्दनाओं में जो भाव होने चाहिये वे नहीं होते । जहाँ तक प्रथम-द्वितीय वन्दना को प्राप्त करने की बात है तो सभी जीव उसे प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि स्वभाव (जाति) से भव्य होने पर भी जो भव्य (दूर) हैं वे जीव इस वन्दना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । भव्यत्व मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हो, यह आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो सभी भव्य जीवों को मोक्ष-प्राप्ति हो जाती । अतः आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार किसी को दवा देनी हो तो उसकी अवस्था देखनी पड़ती है और उसी अनुसार उचित मात्रा में दवा देने से लाभ होता है, उसी प्रकार सर्वकल्याणकारी वन्दना विधि-योग्य जीवों को उनकी योग्यतानुसार विधिपूर्वक देनी चाहिये ।
चतुर्थ पञ्चाशक
चतुर्थ पञ्चाशक में 'पूजाविधि' का वर्णन है, जिसके अन्तर्गत पूजा का काल, शारीरिक शुचिता, पूजा सामग्री, पूजा-विधि, स्तुति-स्तोत्र इन पञ्चद्वारों का तथा प्रणिधान (संकल्प) और पूजा निर्दोषता का क्रमशः विवेचन किया गया है । सामान्यतया प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में पूजा की जाती है, लेकिन आचार्य हरिभद्र ने यहाँ बताया है कि नौकरी, व्यापार आदि आजीविका के कार्यों से जब भी समय मिले तब पूजा करनी चाहिए । यह अपवादमार्ग है, क्योंकि आजीविका-अर्जन के समय पूजा करने से कल्याण की परम्परा का विच्छेद होता है जिससे गृहस्थ जीवन की सभी क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाएँगी, क्योंकि सम्पत्ति के अभाव में दान-पूजा आदि कुछ नहीं होगा, इसलिये जिस समय आजीविका सम्बन्धी क्रियाओं में व्यवधान न पड़ता हो उस समय पूजा करनी चाहिए। समय के अतिरिक्त पूजा के लिये शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की भी आवश्यकता है । शुद्धि दो प्रकार की होती है - द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि । स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना द्रव्यशुद्धि है और अपनी स्थिति के अनुसार नीतिपूर्वक प्राप्त धन से पूजा करना भावशुद्धि है । यद्यपि खेती, व्यापारादि से पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा होती है, फिर भी वह हिंसा नहीं मानी जाती है, क्योंकि उनका भाव हिंसा का नहीं होता। जिस प्रकार कुँआ खोदने में बहुत से जीवों की हत्या होती है, किन्तु कुआँ खोदने या खुदवाने वाले का आशय हिंसा करना नहीं होता बल्कि जल निकालना होता है । उसी प्रकार जिन
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