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Ixviii
भूमिका
में देखा जाय तो चैत्यवन्दन एक परमसिद्धि है जिससे मोक्ष जैसे परमपद की प्राप्ति होती है। चैत्यवन्दन में 'नमोत्थुणं सूत्र', जिसे प्रणिपात सूत्र भी कहा जाता है, बोलने का विधान है। यह प्रणिपात पञ्चाङ्गी मुद्रा में बोला जाता है। इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) योगमुद्रा में, 'अरिहंत चेइयाणं' आदि सूत्र जिनमुद्रा में तथा 'जयवीराय' सूत्र मुक्तासूक्ति मुद्रा सहित बोला जाता है। चैत्यवन्दन में चैत्यवन्दन सम्बन्धी क्रियाओं, सूत्रों के पदों, अकारादि वर्गों, सूत्रों के अर्थ और जिनप्रतिमा – इन पाँचों के प्रति सजगता (उपयोग) आवश्यक है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि एकाग्रचित्त एक समय में एक ही विषय पर केन्द्रित होता है, फिर पाँचों के प्रति सजगता कैसे हो सकती है ? उत्तर में हरिभद्र कहते हैं कि उस एक विषय के अतिरिक्त अन्य विषय भी वहाँ उपस्थित होते हैं और क्रमिक रूप से सभी के प्रति उपयोग रहता है। जिस प्रकार मूल ज्वाला से नई-नई ज्वालाएँ निकलकर मूल ज्वाला से अलग दिखती हैं, फिर भी उनको मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता है, क्योंकि अलग हुई ज्वाला के परमाणु रूपान्तरित होकर वहाँ अवश्य रहते हैं, किन्तु दिखलाई नहीं देते हैं। उसी प्रकार चैत्यवन्दन के भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न उपयोग होने पर भी उपयोग का परावर्त अति तीव्र गति से होने के कारण हमें एक ही उपयोग जैसा दिखलाई पड़ता है, किन्तु शेष उपयोगों के भाव भी वहाँ मौजूद होते हैं।
वन्दना मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त होती है (जीव भव्य और अभव्य दो प्रकार के होते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण - ये तीन करण भव्य जीवों के होते हैं और अभव्य जीवों को मात्र यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है)। मात्र द्रव्य चैत्यवन्दन करने से मोक्ष नहीं होता है, किन्तु शुद्धभावपूर्वक चैत्यवन्दन करने से ही मोक्ष होता है। चैत्यवन्दन की इस शुद्धता-अशुद्धता के विषय पर आवश्यकनियुक्ति में सिक्के के प्रकारों को बताते हुए प्रकाश डाला गया है। कहा गया है स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध और मुद्रा प्रामाणिक हो तो सिक्का असली होता है। स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध हों, किन्तु मुद्रा ठीक न हो तो रुपया पूर्णतः प्रामाणिक तो नहीं होता है, किन्तु उसका कुछ मूल्य अवश्य होता है। मुद्रा ठीक हो किन्तु स्वर्णादि द्रव्य अशुद्ध हों तो रुपया जाली या नकली कहा जाता है । मुद्रा और द्रव्य दोनों के ही अप्रामाणिक होने से रुपया खोटा होता है उसका कोई मूल्य ही नहीं होता। इसी प्रकार श्रद्धायुक्त, स्पष्ट उच्चारण एवं विधिसहित की गई वन्दना शुद्ध मुद्रा के समान है। जो वन्दना भाव से युक्त हो, परन्तु वर्णोच्चारण आदि विधि से अशुद्ध हो, वह वन्दना दूसरे प्रकार की वन्दना के समान है। तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना प्रायः अति दुःखी और
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